श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
श्री ध्रुवदास काल
उनका मन इस आनंद को अमृर्त प्रेम-सौंदर्यानुभव के रूप में अैर उनके नेत्र इसको अनंत प्रेम ओर माधुर्य धाम श्यामा के रूप में जानते हैं। मन और नेत्रों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन के बिना नेत्रों की क्रिया अर्थ रहित है और नेत्रों के बिना मन गति अन्धी है। प्रेम में मूर्त और अमूर्त कुछ इसी प्रकार से परस्पर आश्रित हैं। प्रेम की वृत्ति पर रूप आश्रित हैं और रूप पर प्रेम की वृत्ति। जिन भक्तों ने भगवान को प्रेम स्वरूप मान कर उनकी प्रेम लीला का वर्णन किया है उनको प्रेम का उत्कर्ष दिखाने के लिये बार-बार प्रेम के मुकाबिले में भगवत्ता का पराजय दिखाना पड़ा है। यह कार्य उन्होंने, निस्सन्देह, बड़े कौशल और नवनवोन्मेष शालिता के साथ किया है और उनके इस प्रकार के पद भक्ति-साहित्य के आकर्षण माने जाते हैं। किन्तु भगवत्ता जैसे विजातीय तत्त्व के साथ तुलना करके प्रेम की श्रेष्ठता दिखाने की शैली को ध्रुवदास जी एवं अन्य राधा वल्लभीय रसिक गण प्रेम वर्णन की स्वभाविक शैली नहीं मानते। उनके लिये राधाकृष्ण ‘सहज-प्रेम’ की मृर्ति हैं। सहज प्रेम से उनका तात्पर्य अपने रूप में स्थित प्रेम से है। जो प्रेम विजातीय सम्पर्क शून्य है, उसी को यह लोग शुद्ध और अपने स्वरूप में स्थित मानते हैं। भगवत्ता जैसे विजायतीय तत्त्व पर आश्रित प्रेम की सहजता को यह लोग स्वीकार नहीं करते और, इसीलिये, प्रेम को अन्य किसी वस्तु पर आधारित न करके प्रेम पर ही आधारित करते हैं। उनके प्रेम सम्बन्धी इस दृष्टिकोण का ही यह परिणाम है कि ध्रुवदास जी मूर्त प्रेम की समता अमूर्त प्रेम के साथ करते है और अमूर्त की अपेक्षा मूर्त को अधिक प्रभावशली प्रदर्शित करते हैं। राधाकृष्ण को श्रृंगार लीला का वर्णन, श्री ध्रुवदास, उज्ज्वल रस के उन दो समुद्रों के सुखमय मिलन के रूप में करते हैं जिनमें प्रेम मदन की तरंगें सहज रूप से उठती रहती हैं। यह मिलन नित्य और निरपेक्ष है और ध्रुवदास जी के शब्दों में एकमात्र प्रेम की ही वहाँ दुहाई फिरती है- एक प्रेम की तहाँ दुहाई। मूर्त-अमूर्त के सादृश्य वाली जिस शैली से उन्होंने रूप का वर्णन किया है, उसी का उपयोग उन्होंने लीला के वर्णन में भी किया है। एक उदाहरण देखिये, लपटि रहे दोउ लाड़िले अलबेली लपटान ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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