साहित्य
लालस्वामी जी
दरसैं परसैं रस में बरसैं अतिसै तरसैं न त्रिपित्त कराहीं।
पुंज भरे सुख सेज सरोजनि कुंज के आँगन आवत नाहीं।।
कहा तीरथ परवत-बन गाहन ऊपर चरन नारि तर लरकी।
कंकर कंट पाँइ पनही बिनु चूरन करी धूरि सब धरकी।।
परबी परब पुन्य करि गर्वित निबरत गिरत स्वर्ग गति नरकी।
लाल कृपाल प्रेम रस बंधन निर्भै भक्ति राधिका वर की।।
छप्पय
एक मेघ मनि मुकुर एक मृदु कनक कलेवर।
नग भूषन जगमगत अंग भुज दंड जुरे उर।।
रस मय मधुर किशोर जोर दरसन चितवित हर।
दिनकर निकर अनंग चंद नाहिंन नख पटतर।।
बलि-बलि श्री हरिवंश हित जिन नाम सकल भव-भ्रम हरयौ।
जुग संगम कल कुंज बिच जिन बिखरत मन संपुट करयौ।।
जद्यपि दादुर नीरज के ढिंग तीर रहै न शरीर छुवावै।
राग करै अनुराग विना पुनि साग सलौंनौ अलौंनौंई भावै।।
रेत के खेत में खाँड़ खिपै ज्यौं दुरद्द तें दूरि पिपीलिका पावै।
श्री हरिवंश गुसाईं कृपा बिन हेत पदारथ हाथ न आवे।।
छप्पय
अक्षर तरल तरंग वेद विद्या बिनु पारहि।
सब्द-सिंधु गंभीर लहरि कहाँ लगि अवधारहि।।
चितवित हित हरिवंश विमल वृन्दावन रंजन।
कुंज धाम धन धूरि नित्त जमुना जल मंजन।।
श्री राधावल्लभ लाल पद सेवन गावन पठन रट।
तरक पंथ जिन भ्रमहि मन जो भल भाग ललाट पट।।
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