हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 268

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


व्‍यासी जी की वाणी में यह दोनों बातें अत्‍यन्त स्‍पष्‍ट रूप में दिखलाई देती है। वे वृन्‍दावन-रस के आदि गायकों में से है। इस रस के रूप में वृन्‍दावन-रति ही आस्‍वादित होती है। व्‍यास जी ने वृन्‍दावन की प्रशंसा में एक-से-एक सुन्‍दर बीसियों पद कहे है। स्‍वभावत: उन्‍होंने वृन्‍दावन के उस रूप का वर्णन किया है जो रसिकों की प्रेम-दृष्टि में झलकता है। प्रेम और सौन्‍दर्य के इस अनन्‍यधाम के रास-आकाश में, व्‍यास जी को नित्‍य दुलहिनी-दूलह रूपी ‘प्रेम-परेवा’[1] फिरते हुए दिखलाई देते है;

विहरत सदा दुलहिनी-दूलह अंग-अंग मधुरस पेवा।
व्‍यास रास-आकास फिरत दोऊ मानहुँ प्रेम-परेवा।।

इस वृन्दावन में सुख-चैन सदैव प्रगट क्रीड़ा करता है जिसको देखकर व्‍यासदास अपने नेत्रों को धन्‍य मानते है,

वृन्‍दावन प्रगट सदा सुख चैन।
कुंजनि-कुंज पुंज छवि बरसत, आनंद कहत बने न।।
कुसु‍मित नमित विटप नव साखा, सौरभ अति रस ऐन।
मधुप, मराल, केकि, शुक, पिक, धुनि सुनि व्‍याकुल मन मैन।।
श्‍यामाश्‍याम फिरत धन वीथिनु, होत अचानक ठैन।
पुजकित गात संभारन भुज में, भेंटत बात कहें न।।
अति उदार सुकुमार नागरी, रोम-रोम सुख दैन।
हाव-भाव अंग-अंग विलोकत, धन्‍य व्‍यास के नैन।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पारावत
  2. व्‍या. वा. पृ. 8-9

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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