हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 263

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


शिष्‍यता की बात दोहराने से एक बात यह ध्‍वनित होती है कि 'रसिक अनन्‍य माल' के रचना काल[1] ही व्‍यास जी की शिष्‍यता का प्रश्‍न विवा-दास्‍पद बन चुका था। व्‍यास जी के वंशधरों में से कुछ तो राधावल्‍लभीय परंपरा में शिष्‍य होते थे और कुछ लोग माध्‍व गौड़ीय सम्‍प्रदाय के अनुयायी थे और उसी का अनुगत अपने आदि पुरुष व्‍यास जी को सिद्ध करते थे। उधर सुकुल सुमोखन जी भी व्‍यास जी के कुल-गुरु थे और उनका इस रूप में स्‍मरण व्‍यास जी ने अपने कई पदों में किया है। ऐसी स्थिति में जिसकी समझ में जो आता था कह रहा था। भगवत मुदित जी ने ऐसे लोगों के भ्रम-निवारण के लिये ही शिष्‍यता की बात को चरित्र के अंत में दोहरा दिया है।

यह भी मालूम होता है कि व्‍यास जी को हिताचार्य का शिष्‍य न मानने वालों ने, प्राचीन-काल में ही, व्‍यास-वाणी के सम्‍बन्धित पदों को तोड़ना-मरोड़ना आरम्‍भ कर दिया था। 'भक्‍त कवि व्‍यास जी' के लेखक को व्‍यास-वाणी की जितनी प्रतियाँ उपलब्‍ध हुई हैं उनमें श्री हित जी को व्‍यास जी का गुरु सूचित करने वाले छंदो में आवश्‍यक परिवर्तन कर दिये गये हैं। उक्‍त लेखक को व्‍यास-वाणी की तीन प्रतियाँ मिली हैं जिनमें से एक सं. 1883 की है, दूसरी सं. 1888 की एवं तीसरी सं. 1894 की हैं। अभी तक उन्‍नीसवीं शती के अंतिम भाग से पूर्व की कोई प्रति प्राप्‍त नहीं थी। कुछ ही दिन पहिले व्‍यास-वाणी की दो प्रतियों का पता इन पंक्तियों के लेखक को चला है। इनमें से एक सं. 1791 की है और दूसरी सं. 1876 की। दोनों प्रतियाँ कोलारस, जिला शिव पुरी में सुरक्षित है। सं. 1791 वाली प्रति वहाँ के प्रसिद्ध रसिक भक्‍त पं. वासुदेव जी खेमरिया के पास है और सम्‍वत 1876 की प्रति वहाँ के गोपाल जी के मंदिर के अन्‍यतम सेवाधिकारी पं. व्रजवल्‍लभ जी के पास है। सं. 1791 वाली प्रति की पुष्पिका इस प्रकार है "इति श्री व्‍यास जी कृत साखी, विष्‍णुपद भाषा प्रबंध सम्‍पूर्ण। लिख्‍यतेज्‍येष्‍ठ मासे शुल्‍क पक्षे तिथौ नवम्‍यांगुरु वासरे सं. 1791। लिपि कृतं भूधर दासने शुभमस्‍तु लेखक पाठकयोश्चिरं तिष्‍ठतु।" इस प्रति का प्रारंभ साखियों से हुआ है और इसमें 67 साखियाँ दी हुई हैं। साखियाँ में यह दोहा भी अंकित है-

कोटि-कोटि एकादशी महाप्रसाद को अंश।
व्‍यासहिं यह परतीति है जिनके गुरु हरिवंश।।

यह दोहा 'भक्‍त कति व्‍यास जी' में पृष्‍ठ 60 पर उद्धृत किया गया है और इसके बारे में यह कहा गया है कि व्‍यास वाणी की प्राप्‍त प्रतियों में नहीं पाया जाता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अठारहवीं शती के आरम्‍भ में

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः