हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 260

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


यह मनोदशा काव्‍य-रचना के बहुत अनुकूल होती है और नवलदास जी से मिलने और उनके साथ वृन्‍दावन-गमन करने के बीच के थोड़े से समय में ही इन 15-16 पदों की रचना हो गई थी। 'भक्‍त कवि व्‍यास जी' के लेखक के अनुसार यदि व्‍यास जी को बीस वर्ष वृन्‍दावन से अलग रहना पड़ा होता तो इस प्रकार के सैकड़ो पदों की रचना वे कर डालते!

लेखक ने अपने तीर्थ-यात्रा वाले अनुमान को 'चौरासी-वैष्‍णव की वार्ता' के एक प्रसंग पर भी आधारित किया है। उन्‍होंने इस वार्ता को व्‍यास जी की समसामयिक रचना माना है। सम्‍बन्धित प्रसंग कृष्‍णदास अधिकारी की वार्ता में आया है। उसका सारांश यह है कि एक बार कृष्‍णदास, जो शूद्र थे, द्वारिका से दर्शन करके लौट रहे थे। मार्ग में वे मीराबाई के गांव मैड़ते में ठहरे। वहाँ उन्‍होंने हरिवंश, व्‍यास आदि वैष्‍णवों को कई दिनों से बिदाई की प्रतीक्षा में पड़े देखा। कृष्‍णदास ने वहाँ पहुँचते ही विदा मांगी और मीराबाई ने कुछ मोहरें श्रीनाथ जी को भेट में देना चाहीं। कृष्‍णदास ने भेंट लेने से यह कह कर निेषेध कर दिया कि 'तुम महाप्रभु जी की शिष्‍य नहीं हो'। जब वे आगे चले तो किसी वैष्‍णव ने उनसे पूछा कि तुमने श्रीनाथ जी की भेंट क्‍यों फर कर दी? इस पर कृष्‍णदास ने कहा 'जो भेट की कहा है, परि मीराबाई के यहाँ जितने सेवक बैठे हुते तिन सबनि की नीची करि के भेट फेरी है, इतने इक ठोर कहाँते मिलते। यह हूँ जानैगे जो एक बेर शूद्र श्री आचार्य महाप्रभून कौ सेवक आयौ हुतौ तानै भेट न लीनी तौ तिनके गुरुन की कहा बात होयगी'। यह वर्णन अपनी प्रामाणिकता को स्‍वयं नष्‍ट कर देता है और फिर यह भी समझ में नहीं आता कि जिन श्रीहरिवंश ने अपने वृन्‍दावन-वास के प्रथम दो वर्षो में ही व्रज के राजा नरवाहन जी को एवं ठठ्ठे के सूबेदार राजा परमानंद जी को अपना शिष्‍य बना लिया था, उनको धन-संग्रह के लिये मीराबाई के पास क्‍यों जाना पड़ा? और जिन व्‍यास जी ने यह कहा है कि अपनी बेटी से वेश्‍यावृति करा कर भी वृन्‍दावन-वास करना चाहिये, वृन्‍दावन से अन्‍यत्र का वैभव-विलास मिथ्‍या है,[1][2] वे 'विदाई की आशा' में सुदूर मारवाड़ देश में कैसे पहुँच गये? भक्‍त कवि व्‍यास जी' के लेखक ने व्‍यास जी के एक पद के द्वारा इस घटना को प्रमाणित करना चाहा है। इस पद में व्‍यास जी ने उन भक्‍तों की भर्त्‍सना की है जो भूपों के द्वार पर भीख मांगने जाते हैं। [3][4] स्‍वयं बुरा काम करके उसके लिये दूसरों की निन्‍दा करना भक्‍तों का मार्ग नहीं है। यदि व्‍यास जी लोभवश मीराबाई के द्वार पर सप्‍ताहों पड़े रहे होते तो यह पद वे कभी नही कहते। व्‍यास जी ने ओड़छे के राज-द्वार पर खड़े हुए भक्‍तों की दुर्दशा अपनी नजरों से देखी थी और उसी का सजीव वर्णन इस पद में किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1.  कनक रतन भूषण वसन मिथ्‍या अनत विलास।
    बेटी हाट सिंगार के बसि वृन्‍दावन व्‍यास।।

  2. व्‍यास वाणी, पृ. 195
  3. भक्‍त ठाड़े भूपनि के द्वार।
    उझकत, झुकत, पोरियन डरपत गाय बजाय सुनावत तार।।इत्‍यादि

  4. व्‍यास वा. पृ. 131

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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