विहरत दोऊ प्रीतम कुंज।
अनुपम गौर श्याम तन शोभा, बन बरसत सुख पुंज।।
अद्भुत खेत महा मनमथ कौ, दुंदुभि भूषन राव।
जूझत सुभट परस्पर अँग-अँग, उपजत कोटिक भाव।।
भर संग्राम श्रमित अति आवला, निद्रायत कल नैन।
पिय के अंक निसंक तंक तन आलस जुत कृत सैन।।
लालन मिस आतुर पिय परसत, उरू नाभि उरजात।
अद्भुत छटा बिलोकि अवनि पर विथकित वेपथ गात।।
नागरि निरखि मदन विष व्यापत, दियौ सुधाधर धीर।
सत्त्वर उठे महा मधु पीवत, मिलत मीन मिव नीर।।
अब हीं मैं मुख मध्य बिलोके, विंबाधर सु रसाल।
जाग्रत ज्यौं भ्रम भयो परयौ मन, सुत मनसिज कुल जाल।।
सकृदपि मधि अधरामृत मुपनय सुंदरि सहज सनेह।
तब पद-पंकज कौ निजु मंदिर पालय सखि मम देह।।
प्रिया कहत कहु कहाँ हुते पिय नव निकुंज वर राज।
सुन्दर बचन-रचन कत वितरत रति-लंपट बिनु काज।।
इतनौं श्रवन सुनत मानिनि-मुख अंतर रह्यौ न धीर।
मति कातर विरहज दुख व्यापत बहु तर स्वाँस समीर।।
(जै श्री) हित हरिवंश भुजनि आकर्षे लै राखे उन माँझ।
मिथुन मिलत जु कछुक सुख उपज्यौ त्रुटि लवमिव भइ साँझ।।[1]