हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 217

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


सूरदास जी ने राधा का बड़ा मन-मोहक चित्रण किया है। उनका काल श्रीराधा के व्यक्तित्व का विकास काल था। गीत गोविंद से चली आने वाली राधाकृष्ण के प्रेम-वर्णन की परम्परा उनके समय तक बद्ध-मूल हो चुकी थी। लोक भाषा के कवियों में चंडीदास और विद्यापति श्रीराधा के प्रेम-चरित्र को अपने ढंग से उपस्थित कर चुके थे। सूरदास जी के पदों में श्रीराधा के स्वरूप का एक अभिनव विकास दिखलाई दिया। वह पुराणों पर तो आधारित है ही किंतु, ऐसा मालुम होता है, उस समय व्रजमंडल में एवं अन्यत्र प्रचलित श्रीराधा-संबन्धी अनेक मान्यताओं का समावेश उसमें हुआ है। सूरदास का रचना-काल बहुत लम्बा है। वे लगभग 60 वर्ष तक लीला-गान करते रहे थे। इस काल में अन्य दो कृष्ण भक्त सम्प्रदायों-चैतन्य सम्प्रदाय एवं राधावल्लभीय सम्प्रदाय की स्थापना व्रज में हो रही थी। चैतन्य सम्प्रदाय में वल्लभ सम्प्रदाय की भाँति, श्रीकृष्ण की प्रधानता थी और राधावल्लभीय सम्प्रदाय श्रीराधा को प्रधान मानकर चला था। इस सम्प्रदाय का साहित्य भी मुख्यतया व्रजभाषा में निर्मित हो रहा था। विद्वानों ने, वल्लभ सम्प्रदाय के साहित्य पर चैतन्य सम्प्रदाय के प्रभाव को तो अपने अध्ययनों में लक्षित किया है किन्तु राधावल्लभीय साहित्य एवं इति-वृत्त के अप्रकाशित होने के कारण इस, सम्प्रदाय के प्रभाव का अनुसंधान अभी तक नहीं हो पाया है। यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि लगभग एक ही काल में चल पड़ने वाले तीन भक्ति-आंदोलन एक दूसरे से परस्पर प्रभावित हों। श्रीविट्ठल नाथ जी द्वारा प्रवर्तित अद्भुत सेवा-पद्धति का प्रभाव समकालीन संप्रदायों पर स्पष्ट रूप से पड़ा था। ध्रुवदासजी ने अपनी ‘भक्त नामावली’ में इस सेवा-पद्धति की ही प्रशंसा की है।[1][2]

श्रीहित हरिवंश के द्वारा प्रतिष्ठित श्रीराधा के कृष्णाराध्य रूप का एवं उनके द्वारा प्रचलित निकुंजोपासना तथा सखीभाव का प्रभाव स्पष्ट रूप से अन्य समकालीन सम्प्रदायों पर पड़ा था। सूरदास जी के पदों में श्रीराधा के स्वरूप को हम जो क्रमशः उठता हुआ देखते हैं, एवं सखीभाव संवलित निकुंजोपासना के जो अनेक उदाहरण उनकी रचनाओं में मिलते हैं, यह सब इसी प्रभाव का परिणाम है। ‘हित-चतु-रासी’ के कई पद एवं हरिराम व्यास की संपूर्ण ‘रास पंचाध्यायी’ बहुत दिनों पूर्व ही सूर सागर में ग्रथित कर लिये गये थे और वे ऐसे स्वाभविक ढ़ंग से वहाँ बैठ गये हैं कि ‘नागरी-प्रचारिणी’ वाले खोज पूर्ण संस्करण में भी उनको पकड़ा नहीं जा सका है। हमको स्मरण आता है कि द्विवेदी-युग में सूरसागर में मिलने वाले हित चतुरासी के पदों को लेकर ‘सरस्वती’ में एक विवाद चला था। सूरदास जी का जन्म निर्विवाद रूप से हित जी से पूर्व हुआ था और इसी आधार पर इन पदों को सूरदास जी की रचना सिद्ध किया गया था। किन्तु इस पक्ष के समर्थकों ने इस बात पर गौर नहीं किया कि सूरदास जी श्रीहित हरिवंश से अवस्था में बड़े होते हुए भी उनके बाद में 25 वर्ष तक जीवित रहे थे और उने जीवन काल में ‘हित चतुरासी’ ही नहीं हित-सम्प्रदाय के अनेक रसिक महात्माओं की वाणियाँ प्रगट हो चुकी थीं। ऐसे विवादों को मिटाने का सबसे अधिक निर्भ्रान्त तरीका प्राचीन प्रतियों की तुलना करने का है। हित चतुरासी की अनेक प्राचीन प्रतियाँ और टीकायें उपलब्ध हैं और उनके तुलनात्मक अध्ययन से इस संदेह को निवृत्त किया जा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वल्लभ सुत विट्ठल भये अति प्रसिद्ध संसार।
    सेवा विधि जिहि समय की कीन्ही तेहि ब्यौहार।।
    राग भोग अद्भुत विविध जो चहिये जिहि काल।
    दिनहि लड़ाये हेत सौं गिरिधर श्री गोपाल।।

  2. भक्त नामावली

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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