हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 21

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान


सुनत गुसाँई जू अति दूखे। तासौं वचन कहे अति रूखे।।

वर दै श्याम छुड़ावत गोहन। काहू भक्ति देत नहिं मोहन।।
कोटि जतन संतन सँग पाई। सो जु छुड़ावन आयौ भाई।।
महा रजोगुण लै तुँ आवै। मेरौ कृत धीमरहि बतावै।।

यह तै कर-यौ बड़ौ अपराध। मै त्याग्यौ तु जानि असाध।।[1]

नाहरमल जी भी पूरे गुरु-भक्त थे। उन्होंने उसी क्षण से अन्न-जल त्याग कर दिया और गुरु के प्रसन्न होने पर ही जीवन धारण करने को तैयार हुए।

हित-प्रभु की निर्लोंभता के भी दो उदाहरण उनके शिष्यों के चरित्रों में मिलते हैं। नर वाहन जी ने यमुना पर आने-जाने वाले माल पर ज़कात (चुंगी) लगा रखी थी। उनके अनुचर तत्परता के साथ चुंगी वसूल करते थे और जो कोई चुंगी नहीं देता था उसके माल का रोक लेते थे। एक बार एक जैन बनिया कई सशस्त्र नावों में बहु-मूल्य माल भर कर जा रहा था। चुंगी मांगने पर उसने लड़ाई छेड़ दी और घमासान युद्ध हुआ। नर वाहन जी की सेना ने उसकी नावें डुबो दीं और बनिये को गिरफ्तार करके उसके तीन लाख के माल को जब्त कर लिया। बनिया को बन्दी-गृह में डालकर उससे कह दिया गया- ‘जब तू इतना ही धन अपने घर से और मँगा देगा, तब तेरी मुक्ति होगी।’ कई महीने बीत गये, किन्तु वह घर से धन न मँगा सका। अन्त में एक दिन राज-सभा में उसको फाँसी देने का निर्णय कर दिया गया। नर वाहन जी एक दासी को यह बात मालूम हुई तो, उसके मन में बड़ी करुणा उत्पन्न हुई। बनिया अभी तरुण था और उसका जीवन इस प्रकार समाप्त होने योग्य नहीं था। फाँसी के दिन से एक रात पूर्व दासी कारागृह में उससे मिली और राजा के निर्णय की सूचना उसको दी। वैश्य बेचारा एक दम घबरा गया और दासी के पैर पकड़ कर बचने का उपाय पूछने लगा। दासी ने कहा- ‘राज सभा का निर्णय बदला नहीं जा सकता। अब तो एक ही उपाय है कि तु कंठी और तिलक धारण करके पिछली रात उच्च स्वर से ‘श्री राधावल्लभ-श्री हरिवंश’ नाम की रट लगा दे। राजा की इस नाम में बड़ी आसक्ति है। इसको सुनते ही वह दौड़ कर तेरे पास आवेगा और बेड़ी काट कर तुझ से बातचीत करेगा। राजा यदि पूछे, तो तु अपने को श्री हित हरिवंश का शिष्य बता देना।’ दासी चली गई और बनिया ने रात्रि का तृतीय प्रहर आने पर अपने प्राणों का पूरा जोर लगा कर ‘राधावल्लभ श्री हरिवंश’ की धुन लगाई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रसिक अनन्यमाल

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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