श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
भूमिका -डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी
ऐसे ही समय में भक्तों का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने भगवत्प्राप्ति के लिये जहाँ चित्तशुद्धि और पवित्र आचार पर जोर दिया, वही हप्त कंठ से यह भी घोषणा की, कि भगवान भाव के भूखे है। ‘भाव’ अर्थात ‘होना’। प्रत्येक व्यक्ति का अपना कुछ भाव है। उसी के लिये वह जीता है और उसी को सच्चिदानन्दघन भगवान को समर्पण करके उसका जीवन चरितार्थ होता है। भाव सैकड़ों हैं। परमात्मा से मनुष्य के नाते अनेक है, परन्तु वह जो है अर्थात उसका जो भाव है, उसे अनेक प्रयत्न और साधना के बाद वह ठीक -ठीक अनुभव कर पाता है। इसी भाव को पाने के लिये साधना की आवश्यकता होती है। प्रिया-भाव से, पत्नी-भाव से, सखी-भाव से, सखा-भाव से, पुत्र-भाव से, पितृ-भाव से, भ्रातृ-भाव से मनुष्य भगवान को प्राप्त कर सकता है, क्यों कि वे ही समस्त भावों के आश्रय और लक्ष्य हैं। इस काल के अनेक सन्तों ने भगवान का सान्निध्य प्राप्त करने के लिये अनेक भावों से साधन करने का मार्ग ग्रहण किया। मधुर-भाव की उपासना इस काल की मुख्य देन है। जिन सन्तों ने इस माधुर्य साधना पर बल दिया उनमें महाप्रभु चैतन्य देव और गोस्वामी हितहरिवंश का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। चैतन्य सम्प्रदाय के भक्तों ने जहाँ एक ओर भाव गद् गद् भजन और अन्य प्रकार के साहित्य का निर्माण किया, वहाँ अपनी विशेष दृष्टि को स्पष्ट करने वाले शास्त्र-जातीय ग्रन्थों की भी रचना की। परवर्ती काल में इस शास्त्रीय ग्रन्थों ने भक्ति क्षेत्र में बड़ा प्रभाव विस्तार किया, परन्तु गोस्वामी हितहरिवंश के शिष्य-प्रशिष्यों ने केवल भाव भरी वाणियों की ही रचना की। उन्हें जो कुछ कहना था, उसे वे वाणियों में ही सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते रहे। इसीलिये यद्यपि उनकी दृष्टि चैतन्य महाप्रभु के भक्तों की अपेक्षा भिन्न और कई बातों में स्वतन्त्र थी, तथापि शास्त्रीय ग्रन्थों के रूप में उसका परिष्करण नही हो पाया। इस परिष्करण की ओर इधर विद्वानों का ध्यान गया है। आदरणीय गोस्वामी ललिताचरण जी हित-सम्प्रदाय के मर्मज्ञ पण्डित और भक्त है। उन्होंने सम्प्रदाय के सन्तों की वाणियों का पूर्ण अध्ययन और मनन किया है। साथ ही वे अन्य सम्प्रदायो के शास्त्रीय ग्रन्थों से पूर्णतया परिचित है। उन्होंने बडे़ परिश्रम से गोस्वामी हित-हरिवंश और उनके भक्तों की लिखी वाणियों से शास़्त्रीय-सिद्धान्त खोज निकाले है, और इस ग्रन्थ में प्रमाण पुरस्पर प्रतिपादन किया है। गोस्वामी जी इस विषय के अधिकारी विद्वान है। उन्होंने आग्रह किया मैं इस पुस्तक की भूमिका लिखूं, परन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि मैं उस विषय को स्पर्श करने का भी अधिकारी नही हूँ। कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की छानबीन कर लेना और बात है और आत्माराम भगवद्भक्तों के विचार क्षेत्र के वास्तविक जगत में प्रवेश करना और बात है। पुस्तक पढ़कर मुझे सन्तोष हुआ। गोस्वामी जी ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इधर विश्वविद्यालयों में जब से शोध -कार्य आरम्भ हुआ है। तब से यह अनुभव किया जाने लगा है कि भिन्न-भिन्न वैष्णव सम्प्रदायो के विशिष्ट दृष्टिकोणों का ठीक-ठीक ज्ञान कराने वाले ग्रन्थ लिखे-लिखाए, जाँय। गोस्वामी हितहरिवंश और उनके सम्प्रदाय के सम्बन्ध में भी शोध हो रहे है। एक-आध अच्छी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, फिर भी गोस्वामी जी के इस प्रयत्न का विशेष महत्त्व है। गोस्वामी जी प्राचीन शास्त्रों के पण्डित हैं और स्वंय इस मार्ग के साधक है। उनके हाथों से जो ग्रन्थ लिखा गया है ,वह निस्संदेह महत्त्वपूर्ण होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मध्यकालीन भक्ति-साहित्य के अनुरागी इस ग्रन्थ का समादर करेंगे। - हजारीप्रसाद द्विवेदी दीपावली- सं. 2014 वि. |
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