श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
नित्य-विहार
कठिन पहुँचनौ प्रेम करै पंथ न निकस्यौ धाइ। उपासना के मार्ग से चलकर साधक का मन जब नित्य प्रेम-विहार के आनंदोल्लास में प्रविष्ट होता है तब उसकी सब क्रियायें लोक-बाह्य बन जाती हैं। उसकी हृदय-ग्रन्थियों का भेदन हो जाता है और उसके संपूर्ण संशय छिन्न हो जाते हैं। उसकी उस समय की स्थिति का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं, ‘जिस पर श्री हरिवंश की कृपा होती है, वह राधा-हरि के नित्य विहार का दर्शन पुलकित शरीर से करता रहता है और उसके नेत्रों से आनंद की झड़ी लगी रहती है। वह कभी रोता है, कभी आनंदोल्लास में गान करता है और कभी अट्टहास करता है। वह क्षण-क्षण में श्यामाश्याम के साथ विहरण करता है, क्षण-क्षण में उसका अभंग यश-गान करता है। नित्य किशोर के दर्शन से उसकी रति नित्य नवीन बनती रहती है और व युगल की आलस्य भरी प्रातः कालीन छवि का नित्य दर्शन करता रहता है। सघन कुंज के छिद्रों से युगल की अद्भुत तन-कांति को देखकर उसके नेत्र तृप्त नहीं होते।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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