श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
प्रकट-सेवा
‘अर्धयाम[1] दिन अवशिष्ट रहने पर वह सायं सेवा के लिये, गुण-गान करता हुआ, अपने प्रभु को पुनः उठाता है। युगल को विमल जल पान कराकर वह उनका नवीन श्रृंगार करता हैं एवं उनको कालोचित भोग-सामग्री एवं ताम्बूल अर्पण करता है। तदनंतर वह उनके सन्मुख स्वयं अथवा गुणी-जनों के द्वारा अनेक वाद्यों के सहित गान करता है या कराता है और प्रभु को सन्ध्याकालीन भोग अर्पण करके प्रेम पूर्वक उनकी सन्ध्या आरती करता है। तदनंतर प्रभु के सन्मुख समयोचित पदों का गान एवं नृत्य करके उनको शयन-भोग अर्पण करता है। शयन आरती के बाद उनको पुष्प-रचित शय्या पर शयन कराकर सेवापराधों के लिये क्षमा माँगता हुआ प्रेम पूर्वक प्रभु का चरण-संवाहन करता है।” नित्य सेवा का यह वर्णन सम्प्रदाय के सेवा-ग्रन्थों से उद्धृत किया गया है। नित्य सेवा के अतिरिक्त नैमित्तिक सेवा भी है जो विशेष अवसरों पर विशेषता के साथ की जाती है। इसको उत्सव-सेवा भी कहते हैं। विशेष श्रृंगार एवं विशेष भोग-राग के द्वारा उत्सव-सेवा निष्पन्न होती है। श्री लाड़लीदास ने प्रधान उत्सव दस बतलाये हैं- फाग डोल, चंदन वसन, झूलन, शरदोत्सव, [2]पाटोत्सव, दीपमालिका, कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा, वनविहार, खिचरी उत्सव और बसंत। दासी भाव से भावित होकर ही प्रकट सेवा करने का विधान है। ‘सेवा-विचार’ में इस भाव के उपासक को एक बात से सावधान कर दिया गया है। कहा है ‘श्री राधा किंकरी का भाव एक मानसिक धर्म है अतः सर्व साधारण के सामने न तो उसका वर्णन करना चाहिये और न उसका अनुकरण अपने शरीर पर धारण करना चाहिये। सब मुनिजनों ने भावना के अनुकूल सिद्धि मानी है अतः इस प्रकार के भावुक को भी, श्री राधा की कृपा से, उनकी दासी पद की प्राप्ति निश्चित रूप से होती हैं। धर्मोयं मानसोस्ति प्रभुवर गृहिणी दासिकायास्तुभावो, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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