श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
रसिक बिनु कहे सब ही जु मानत बुरौ, रसिकई कहौ कैसे जु जानो। श्रीहित हरिवंश की वाणी और उसमें प्रदर्शित रसरीति के वास्तविक रहस्य को वही समझ सकता है जो उनके रस-धर्म का मन वाणी और कर्म से अनुसरण करता है। नाभादास जी ने, हितप्रभु से संबंधित अपने प्रसिद्ध छप्पय में कहा है- व्यास मुक्न पथ अनुसरहि सोई भलै पहिचानि है। इस प्रकार रसिक का अर्थ होता है श्री हरिवंश-धर्म को धारण करने वाला धर्मी और रसिकों के संग का अर्थ होता है हित-धर्मियों का संग। सेवक जी ने, इसीलिये, श्री हरिवंश के धर्म को समझने के लिये उसके धर्मियों के संग को ही नहीं, उनकी उपासना को, परम आवश्यक बतलाया है। सेवक वाणी के तेरहवें प्रकरण में ‘पाके’[2] धर्मियों के लक्षण बतलाये गये हैं। प्रकरण के अंतिम छंद में सब लक्षणों का समास करते हुए सेवक जी ने कहा हैं, ‘श्री हरिवंश के प्रसिद्ध धर्म को अल्प तप वाला व्यक्ति नहीं समझ पाता। इस मार्ग में जो उपासक श्री हरिवंश की कृपा के स्वरूप की समझते हैं वे धर्मियों का जप करते हैं। वे श्री हरिवंश के धर्म को धारण करने वाले धर्मियों के भाव का अनुशीलन करते हैं। धर्मी के बिना धर्म की स्थिति नहीं है और धर्म के बिना धर्मों का अस्तित्व नहीं हैं। श्री हरिवंश के प्रताप से इस मर्म को मर्मी ही समझते हैं। जो उपासक श्री हरिवंश-नाम के धर्मियों से प्रीति करते हैं, मैं सदैव उनकी शरण में रहता हूँ और रात-दिन धर्मियों के साथ मिलकर श्री हरिवंश के सुयश का गान करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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