हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 164

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


इस रस के सार का गान श्री हिताचार्य ने अपनी वाणी में किया है। अंतः सेवक जी के अनुसार रसिक वे हैं जो रस-सम्बन्धी अपने पक्षपातों को छोड़कर हितप्रभु की वाणी में दर्शित रस-रीति का ग्रहण करते हैं। अन्य रसिकों से इनका भेद दिखलाने के लिये, सेवक जी ने, इनको ‘निपट-रसिक’, सम्पूर्ण रसिक कहा है।

रसिक बिनु कहे सब ही जु मानत बुरौ, रसिकई कहौ कैसे जु जानो।
आपुनी-आपुनी ठौर जेई तहाँ, आपुनी बुद्धि के होत मानी।।
निपट करि रसिक जो होहु तैसी कहौ, अब जु यह सुनौ मेरी कहानी।।
जोरु तुम रसिक रस रीति के चाड़िले, तौरु मन देहु हरिवंश बानी।।[1]

श्रीहित हरिवंश की वाणी और उसमें प्रदर्शित रसरीति के वास्तविक रहस्य को वही समझ सकता है जो उनके रस-धर्म का मन वाणी और कर्म से अनुसरण करता है। नाभादास जी ने, हितप्रभु से संबंधित अपने प्रसिद्ध छप्पय में कहा है-

व्यास मुक्न पथ अनुसरहि सोई भलै पहिचानि है।
श्री हरिवंश गुसाई भजन की रीति सकृत कोऊ जानि है।।

इस प्रकार रसिक का अर्थ होता है श्री हरिवंश-धर्म को धारण करने वाला धर्मी और रसिकों के संग का अर्थ होता है हित-धर्मियों का संग। सेवक जी ने, इसीलिये, श्री हरिवंश के धर्म को समझने के लिये उसके धर्मियों के संग को ही नहीं, उनकी उपासना को, परम आवश्यक बतलाया है। सेवक वाणी के तेरहवें प्रकरण में ‘पाके’[2] धर्मियों के लक्षण बतलाये गये हैं। प्रकरण के अंतिम छंद में सब लक्षणों का समास करते हुए सेवक जी ने कहा हैं, ‘श्री हरिवंश के प्रसिद्ध धर्म को अल्प तप वाला व्यक्ति नहीं समझ पाता। इस मार्ग में जो उपासक श्री हरिवंश की कृपा के स्वरूप की समझते हैं वे धर्मियों का जप करते हैं। वे श्री हरिवंश के धर्म को धारण करने वाले धर्मियों के भाव का अनुशीलन करते हैं। धर्मी के बिना धर्म की स्थिति नहीं है और धर्म के बिना धर्मों का अस्तित्व नहीं हैं। श्री हरिवंश के प्रताप से इस मर्म को मर्मी ही समझते हैं। जो उपासक श्री हरिवंश-नाम के धर्मियों से प्रीति करते हैं, मैं सदैव उनकी शरण में रहता हूँ और रात-दिन धर्मियों के साथ मिलकर श्री हरिवंश के सुयश का गान करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वा. 4-15
  2. पक्के

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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