हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 146

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
सहचरी

अरबरात नैन-प्राण गौर श्‍याम देखे बिन,
सावधान करि उपाइ कहा फिरति धीरी।
बलि-बलि बृन्‍दावन हित रूप सहित मुसिकनिधन,
पाऊँ गुण गाऊँ रहि टहल माहिं नीरी।।[1]

दूसरी उत्तर देती है ‘हे सखी, तू थोड़ा धीरज रख। देख तो सही इन परम सुकुमारों को शयन किये अभी अधिक समय नहीं हुआ है। मैं तो यह चाहती हूँ कि इस समय पवन मंद-मंद चले, रविजा प्रवाह रोक कर स्थिर हो जाय और पक्षीगण मौन धारण कर लें। जब तक यह दोनों रसिक शय्या का त्‍याग न करें, तब तक कमल न खिलैं और तारों की ज्‍योति क्षीण न हो। जब तक यह सचेत न हों भोर का समय भी चुपचाप निकल जाय!'

वारिज खिलौ न तौलौ, रहौ तारा जोति जौलौं,
उठैं न रसिक दोउ जौलौं नींद लेते।
वृन्‍दावन हित रूप भौर हूँ, भौरे ही जाउ,
जब लगि सोवत तै हौहिं न सचेते।।[2]

इसी प्रकार युगल को भोजन कराते समय एवं विवाह-विनोद की रचना करते समय सखीगण वत्‍सल रंजित उज्ज्वल प्रीति का आस्‍वाद करती हैं। चाचाजी कहते हैं ‘सखीगण को नव-दंपति रूपी खिलौना मिल गये हैं और वे अपना मन उनको देकर उनका मन लिये रहती हैं। यह साँवल और गौर हंस-शावक वृन्‍दा-कानन रूपी छवि–सरोवर में क्रीडा करते रहते हैं। यह दोनों क्षण-क्षण में नये-नये प्रेम कौतुक करते हैं और सखीगण नेत्रों की ओक[3] से लीलामृत का पान करती रहती हैं।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अष्टयाम
  2. अष्टयाम
  3. अंजलि

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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