श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
सहचरी
सखियों का सुख संपूर्णतया युगल के सुख के साथ बँधा है। हितप्रभु न उनको ‘हित-चिंतक’ कहा है। वे सदैव युगल के हित का चिंतन करती रहती हैं। उन का यह हित-चिंतन ही उनको सावधान बनाये रखता है, अन्यथा जहाँ यौवनमद, नेहमद, रूपमद, रसमद आदि उन्मत्त बनकर विनोद करते हैं, वहाँ मन-बुद्धि सहित सम्पूर्ण अस्तित्व का डूब जाना बहुत आसान है। उनके सामने उनके जीवनाधार युगल जब प्रीति विवश बनकर सुध-बुध खो देते हैं तब हितकारी सखियाँ, स्वयं अत्यन्त व्याकुल होते हुए भी, सावधान रहती है। वे जानती हैं कि युगल प्रेम की लहर में पड़कर विवश बन जाते हैं और मदन[1] की लहर उठ आने पर सावधान बनते हैं। अत: वे उस समय मदन को लहर उठाने की चेष्टा करती हैं। और इस प्रकार से युगल का नित्य नवीन प्यार-दुलार कर के अपने प्राणों का पोषण करती हैं। होत बिबस तबही पिय-प्यारी, सावधान तहाँ सखी हितकारी। किन्तु, इस उन्मत्त प्रेम-विहार में ऐसे अवसर भी आ जाते हैं, जब सदैव सावधान रहने वाली सहचरी-गण के ऊपर भी प्रेम का समुद्र फिर जाता है और वे मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ती हैं। इस प्रकार के एक प्रसंग का वर्णन करते हुए ध्रुवदासजी बतलाते हैं, ‘एक बार प्रियतम की अद्भुत प्रेम-गति को देखकर प्रिया अपने सहज वाम-स्वभाव को भूल गईं और उनके बड़े-बड़े नेत्र जल-पूरित हो गये। उन्होंने ‘लाल-लाल’ कहकर अपने प्रियतम को हृदय से लगा लिया और उनके ऊपर प्यार की वर्षा कर दी। प्रिया-प्रेम के गंभीर सागर को अमर्याद उमड़ते देखकर सखीगण विवश बन गई। उनमें से कुछ चित्र की भाँति खड़ी रह गई, कुछ भूमि पर गिर पड़ीं और कुछ के नेत्रों से नेह-नीर उमड़ चला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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