हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 139

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
राधा-चरण -प्राधान्‍य

इस रास में श्रीकृष्‍ण के सर्वथा अभाव ने श्रृंगार रस ही नहीं बनने दिया है। हम देख चुके हैं कि भरत ने प्रमदायुक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है, अत: श्रीकृष्‍ण को छोड़कर श्रीराधा की प्रधानता का, रस की दृष्टि से, कोई अर्थ नहीं रह जाता। हित प्रभु ने श्रीराधा की किसी स्‍वतन्‍त्र लीला का वर्णन तो कहीं किया ही नहीं है, उनके श्रीराधा–रुप–वर्णन के जो पद हैं, उनमें भी वे विदग्‍धता पूर्वक श्‍याम सुन्‍दर का उल्‍लेख कहीं न कहीं कर देते हैं। हितप्रभु की राधा-चरण-प्रधानता को स्‍पष्ट करते हुए नागरीदासजी कहते हैं, ‘रसिक हरिवंश का मन ही श्‍यामा श्‍याम का तन है और वे अपने अनुराग के इस ललित वपुओं को सदैव अपने हाथ में लिये रहते हैं।

अपनी वाम भुजा की ओर श्‍यामसुन्‍दर और दक्षिण भुजा की ओर श्रीराधा को लिये हुए वे मत्त गति से वृन्‍दावन में विचरण करते रहते हैं।

रसिक हरिवंश मन लाड़िली लाल तन
ललित अनुराग वपु करनि लीने।
वाम भुज लाल दक्षिण भुजा लाड़िली,
ललित गति चलत मल्‍हकत प्रवीने।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री हरिबंशाष्ठक

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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