श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्रीराधा
नित्य प्रेम- विहार में, श्रीराधा अपनी सहचरियों की तो गुरु हैं ही और उनको संगीत, नृत्य, माला ग्रन्थन, चन्दन- निर्द्यर्षण आदि की शिक्षा देती हैं।[1] साथ ही अपने प्रियतम की भी वे शिक्षा-गुरु हैं। स्वामी हरिदास जी और व्यासजी ने अपने कई पदों में श्रीराधा के इस रूप के चित्र उपस्थित किये हैं। व्यासजी का एक प्रसिद्ध पद देखिये; पिय कौं नाचन सिखवत प्यारी। वृन्दावन में रास रच्यौ है शरद चन्द उजियारी। ताल-मृदंग, उपंग बजावत प्रफुलित ह्वै सखि सारी।। बीन, बैनु-धुनि नूपुर ठुमकत खग्-मृग ढसा विसारी। मान-गुमान लकुट लिये ठाड़ी डरपत कुंज विहारी।। व्यास स्वामिनी की छवि निरखत हँसि-हँसि दै करतारी। स्वामी हरिदासजी ने कहा है ‘कुंज विहारी नाचने में निपुण हैं और लाड़िली नचाने में कुशल हैं। वे विकट ताल पकड़ कर अपने प्रियतम के साथ ‘ताता-थेई’ बोलती हैं। तांडव, लास्य एंव अनेक नृत्य-भेदों की जो विभिन्न रुचि उनके चित्त में उठती है, उनको कौन गिन सकता है ? मेरी स्वामिनी श्रीश्यामा के आगे अन्य सब गुणी फीके पड़ गये हैं।' कुंज विहारी नाचत नीके लाड़िली नचावत नीके। हितप्रभु की यह श्रीराधा संपूर्णतया भाव-स्वरूपा हैं किन्तु यह भाव नित्य प्रगट है। राधा-सुधा-निधि में श्रीराधा को ‘परम-रहस्य’ ‘पूंजीभूत रसामृत,’ ‘प्रेमानंद-घनाकृति,’ ‘निखिल निगभागम अगोचर’ आदि कहने के साथ ‘वृषभानु की कुलमणि’ और ‘ब्रजेन्द्र-गृहिणी यशोदा का गोविन्द के समान प्रेमैक पात्र मह:'[3] बतलाया गया है। इन अद्भुत श्रीराधा में ‘प्रमोल्लास की सीमा, परम रस-चमत्कार–वैचित्र्य की सीमा, सौन्दर्य की सीमा, नवीन रूप-लावण्य की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, वात्सल्य की सीमा, सुख की सीमा, और रति-कला केलि-माधुर्य की सीमायें आकर मिली हैं।’[4] इनके स्वरूप का निर्माण ‘लावण्य के सार, सुख के सार, कारुण्य के सार, मधुर छवि-रुप के सार, चातुर्य के सार, रेति- केलि-विलास के सार और संपूर्ण सारों के सार के द्वारा हुआ है।’[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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