हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 130

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्रीराधा

नित्‍य प्रेम- विहार में, श्रीराधा अपनी सहचरियों की तो गुरु हैं ही और उनको संगीत, नृत्‍य, माला ग्रन्‍थन, चन्‍दन- निर्द्यर्षण आदि की शिक्षा देती हैं।[1] साथ ही अपने प्रियतम की भी वे शिक्षा-गुरु हैं। स्‍वामी हरिदास जी और व्‍यासजी ने अपने कई पदों में श्रीराधा के इस रूप के चित्र उपस्थित किये हैं। व्‍यासजी का एक प्रसिद्ध पद देखिये;

पिय कौं नाचन सिखवत प्‍यारी। वृन्‍दावन में रास रच्‍यौ है शरद चन्‍द उजियारी। ताल-मृदंग, उपंग बजावत प्रफुलित ह्वै सखि सारी।। बीन, बैनु-धुनि नूपुर ठुमकत खग्-मृग ढसा विसारी। मान-गुमान लकुट लिये ठाड़ी डरपत कुंज विहारी।। व्‍यास स्‍वामिनी की छवि निरखत हँसि-हँसि दै करतारी।

स्‍वामी हरिदासजी ने कहा है ‘कुंज विहारी नाचने में निपुण हैं और लाड़िली नचाने में कुशल हैं। वे विकट ताल पकड़ कर अपने प्रियतम के साथ ‘ताता-थेई’ बोलती हैं। तांडव, लास्‍य एंव अनेक नृत्‍य-भेदों की जो विभिन्न रुचि उनके चित्त में उठती है, उनको कौन गिन सकता है ? मेरी स्‍वामिनी श्रीश्‍यामा के आगे अन्‍य सब गुणी फीके पड़ गये हैं।'

कुंज विहारी नाचत नीके लाड़िली नचावत नीके।
औघर ताल धरै श्रीश्‍यामा ताता थेई ताता थेई बोलत संग पी के।।
तांडव, लास्‍य और अँग कौ गनै जे-जे रुचि उपजत जी के।
श्रीहरिदास के स्‍वामी कौ मेरु सरस बन्‍यौ और गुनी परे फीके।।[2]

हितप्रभु की यह श्रीराधा संपूर्णतया भाव-स्‍वरूपा हैं किन्‍तु यह भाव नित्‍य प्रगट है। राधा-सुधा-निधि में श्रीराधा को ‘परम-रहस्‍य’ ‘पूंजीभूत रसामृत,’ ‘प्रेमानंद-घनाकृति,’ ‘निखिल निगभागम अगोचर’ आदि कहने के साथ ‘वृषभानु की कुलमणि’ और ‘ब्रजेन्‍द्र-गृहिणी यशोदा का गोविन्‍द के समान प्रेमैक पात्र मह:'[3] बतलाया गया है। इन अद्भुत श्रीराधा में ‘प्रमोल्‍लास की सीमा, परम रस-चमत्‍कार–वैचित्र्य की सीमा, सौन्‍दर्य की सीमा, नवीन रूप-लावण्‍य की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, वात्‍सल्‍य की सीमा, सुख की सीमा, और रति-कला केलि-माधुर्य की सीमायें आकर मिली हैं।’[4]

इनके स्‍वरूप का निर्माण ‘लावण्‍य के सार, सुख के सार, कारुण्‍य के सार, मधुर छवि-रुप के सार, चातुर्य के सार, रेति- केलि-विलास के सार और संपूर्ण सारों के सार के द्वारा हुआ है।’[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखिये रा० सु० नि० श्‍लोक 112-142
  2. केलिमाल- 60
  3. तेज
  4. रा. सु. नि. 130
  5. रा० सु० नि० 25

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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