हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 114

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्‍याम-सुन्‍दर

भये दीन यौं तजी वड़ाई, पुनि ता‍की वातैं न सुहाईं।
मानते हैं धनि भाग बड़ाई, एसी कुंवरि किशोरी बाई।।
अब मोकौं कछ और न चहिये, नैननि में अंजन ह्वै रहिये।[1]

सूरदासजी ने गोपियों को ‘प्रेम की धुजा’ कहा है। उनके अद्भुत राग का अनुगमन करके ही प्रेम-राज्‍य में प्रवेश होता है। नित्‍य प्रेम-विहार में सखी गण श्‍यामसुन्‍दर से ‘कुंज महल की वाट’ बताने की प्रार्थना करती हैं।

छैल छबीले हो लाल, लटकत-लटकत आईयो।
कुंज महल की हो बाट, लाल रूप दरसाईयो।।[2]

श्‍यामसुन्‍दर में प्रेमी की अकल्‍पनीय दशायें प्रकट होती हैं। श्रीराधा में उनकी आसक्ति इतनी प्रबल है कि उसकी समता ढूंढ़े नहीं मिलती।

वे स्‍वयं मदन मोहन हैं। उनकी परछांही देखकर कोटि मदन व्‍याकुल हो जाते है।

देखत ही तिनकी परछांही, मदन कोटि व्‍याकुल ह्वै जाहीं।

किन्‍तु श्रीराधा के प्रेम- सौन्‍दर्य ने उनको इतना अधीर बना रखा है कि ‘कोटि कामिनी–कुल’ से घिरे रहने पर भी उनको धीरज नहीं बधँता।

‘निकट नवीन कोटि कामिनी-कुल धीरज मनहिं न आनै’[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नेह-मंजरी
  2. श्री रूपलाल गोस्‍वामी
  3. हि० च० 41

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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