हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 110

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

श्‍याम-श्‍यामा की काम-क्रीड़ा को देखकर हमारी कामवृत्ति की यही स्थिति बनती है। इस लीला की एक झलक मात्र से वह सदैव के लिए मोहित, लज्जित और विवश बन जाती है। और फि‍र तो, नित्‍य-नूतन प्रेम स्‍वरुप वृन्‍दावन की निकु्ंज वीथियों को सँवारने का काम उसका रह जाता है।

श्‍याम-श्‍यामा के बीच जो काम है, जो प्रेम का काम है। हम काम-वृत्ति पर आधारित प्रेम से परिचित हैं। श्‍याम-श्‍यामा का काम प्रेम पर आधारित है, इसलिए वह प्रेम के समान ही नित्‍य-नूतन बनता रहता है। यह काम शुद्ध प्रेममय है। केवल श्रृंगार रस के आस्‍वाद के लिए प्रेम और काम भिन्न बन रहें है। इन दोनों के परस्‍पर मिलने से ही उज्‍वल प्रेम-रस का आस्‍वाद होता है। वृन्‍दावन में एक मात्र प्रेम की दुहाई फि‍रती है, ‘तहाँ प्रेम की एक दुहाई’। स्‍वयं श्‍याम-श्‍यामा, उनकी काम-क्रीड़ा क्रीडा के उपकरण और उस क्रीड़ा में प्रगट होने वाले अनुभाव आदि सब प्रेममय हैं।

प्रेम के खिलौना दोऊ, खेलत हैं प्रेम खेल।
प्रेम फूल फूलनि सौं प्रेम सेच रची हैं।
प्रेम ही की चितवनि, मुसिकन प्रेम ही की,
प्रेम रँगी बातै करै, प्रेम केलि मची है।।[1]

हमारे परिचित काम को दो व्‍यक्तियों के बीच में उदित होने के लिए थोड़ी दूरी की अपेक्षा होती है। निकटतम संबंधों के प्रति कामोत्पित्ति नहीं देखी जाती। श्‍याम-श्‍यामा एक ही प्रेम के दो ‘खिलौना’ है। यह स्‍वभावत: एक दूसरे के इतने निकट हैं कि इन के बीच में लौकिक काम के लिए अवकाश ही नहीं है।

लोक में देखा जाता है कि दो व्‍यक्तियों के बीच में उत्‍पन्न होकर काम उन दो को एक बनाता है। वृन्‍दावन मे प्रेम के सर्वथा एक बने हुए भोक्ता-भोग्‍य काम के द्वारा पुन: दो बनाये जाते हैं।

इसके अतिरिक्त, श्‍याम-श्‍यामा की रस-भोग की परिपाटी अत्‍यन्‍त विलक्षण है। इनकी काम-वेलि के सर्वांग वर्णनों के साथ श्री ध्रुवदास यह भी कहते है, ‘प्रेम के रंग से रँगे हुए रसिक श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रिया के अंगों का स्‍पर्श मन के हाथों से भी नहीं करते। प्रेमलता-सी उनकी प्रिया अत्‍यन्‍त सुकुमार हैं और वे उनके ऊपर अपने प्राणों की छाया किये रहते हैं। प्रिया का किंचित् हास ही उनके लिए संपूर्ण विलासों का सार है और उसको देखकर वे अन्‍य सब सुख भूल जाते हैं। अत्‍यन्‍त आसक्ति की गति ही ऐसी होती है कि वे प्रिया पर रीझ-रीझ कर दूर से ही उनके चरणों का बंदन करते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री ध्रुवदास

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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