हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 107

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

श्री वृन्‍दावन धम रसिक मन मोहई।
दूलह-दुलहिनि ब्‍याह सहज तहाँ सोहई।।
नित्‍य सहाने पट अरु भूषण साजहीं।
नित्‍य नवल सम वैस एक रस राजहीं।।

श्री हरिराम व्‍यास ने एक पद में इन नित्‍य दुलहिनी-दूलह के रास का वर्णन किया है। पद के अंत में उन्‍होंने कहा है कि इस लीला के मन में आते ही उनको श्री शुकदेव-वर्णित रास विस्‍मृत हो गया है।

दुलहिन-दूलह खेलत रास।
धीर समीर तीर जमुना के जल-थल कुसुम विकास।।
द्वादस कोस मंडली जोरी फिरत दोऊ अनियास।
बाजत ताल मृदंग संग मिलि अंग सुधंग विलास।।
थके विमान गगन घुनि सुनि-सुनि ताननि कियौ बिसास।
या रस कौ गोपिनु घर छाँड़यौ सह्यौ जगत उपहास।।
मोहन मुरली नैकु बजाई श्रीपति लियौ उसास।
नुपुर-ध्‍वनि उपजाइ विमाह्यौ संकर भयौ उदास।।
कंकन किंकनि धुनि सुनि नारद कीन्‍हौ कहूँ न बास।
यह लीला मन आवत ही शुकदेवहिं बिसर्यो व्‍यास।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व्‍यासवाणी पद- 257

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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