हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 104

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

जीवन-मद, नव मेह-मद, रूप मदन मद-मोद।
रस मद, रतिमद, चाहमद उन्‍मद करत विनोद।।

मदों का मत्त बनना आसाधारण बात है और वह इस प्रेम-विहार में ही संभव बनता है। मत्त बनने का परिणाम घूमना है। वृन्‍दावन के लता-गुल्‍म और खग-मृग, वहाँ के आकाश-पवन और दिशायें रसोन्मत्त बनकर सदैव झूमते रहते है और इन सब के बीच में रसमत्त श्‍याम-श्‍यामा एक दूसरे पर झूम-झूमकर प्रेम-रूप की वर्षा करते रहते हैं। विलक्षण बात है कि सदैव रसोन्‍मत स्थिति में रहते हुए भी युगल प्रीति के सहज अंगों का निर्वाह पूर्ण रूप से करते रहते हैं।

हम देख चुके हैं कि इनकी प्रीति पूर्णतया तत्‍सुखमई है। श्रीराधा जो विलास करती हैं, वह श्‍याम सुन्‍दर के सुख के लिए होता है और श्‍याम सुन्‍दर की प्रत्‍येक क्रिया प्रिया के सुख के लिए होती है। परम रूप लावण्‍यमती श्री राधा जब प्रियतम के अनुराग-मद से भरकर अनंग-केलि में प्रवृत्त होती हैं तब ‘उनके सुरत-रंग से भरे अंगों से’ और उनके ‘हाव-भाव भृकुटि भंग’ से माधुरी की तरंगें उठने लगती हैं, जिनके द्वारा कोटि कामदेवों के मन मथित हो जाते हैं ! वे प्रियतम को संपूर्ण सुख देने के लिये उन पर प्‍यार की वर्षा कर देती हैं। अपनी उस परम-सुखमई स्थिति में भी श्‍याम सुन्‍दर केवल प्रिया के सुख को देखते हैं और इस भय से कि कहीं सुखदान में प्रिया को श्रम न हो गया हो वे उनसे ‘विरम-विरम’ कह उठते हैं।

नागरी निकुंज ऐन, किसलय दल रचित सैन,
कोला-कला कुसल कुंवरि अति उदार री।
सुरत-रंग अंग-अंग, हाव भाव भृकुटि-भंग।
माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।
मुखर नूपुरनि सुभाव, किंकिनी विचित्र राव,
‘विरमि-विरमि’ नाथ वदत वर विहार री
लाड़िली किशोर राज, हंस-हंसिनी समाज,
सींचत हरिवंश नयन सुरस सार री।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 76

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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