श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 533

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ॥48॥
अतएव हे कुन्ती पुत्र ! दोष युक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं ॥48॥

भावानुवाद- ऐसा विचार करना उचित नहीं है कि केवल स्वधर्म में ही दोष है; क्योंकि परमधर्म भी कोई न कोई दोष अवश्य रहता है। इसलिए श्रीभगवान् कहते हैं कि सहज कर्म करना चाहिए, क्योंकि दृष्ट और अदृष्ट कर्म समूह किसी-न-किसी दोष द्वारा अवश्य आवृत हैं, जैसे कि अग्नि को धुएँ के द्वारा आवृत देखा जाता है। अतएव जिस प्रकार अग्नि से धूमरूप दोष को छोड़कर अन्धकार और शीत आदि के नाश के लिए उसका ताप ही सेवन किया जाता है, उसी प्रकार कर्म के भी दोषांश का परितयागकर सत्त्वशुद्धि के लिए उसके गुणांश को ही ग्रहण किया जाना चाहिए।।48।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

स्वभावविहित कर्म को ही साधारणतः स्वधर्म कहते हैं। इस स्वधर्म के लिए विहित कर्मों का आचरण करने से जीवन-यात्रा निर्वाह करने में अत्यन्त सुगमता होती है तथा परमार्थ में भी क्रमशः प्रवेश करने की सम्भावना होती है। यदि कुछ लोग अपने स्वधर्म में कुछ दोषों को लक्ष्यकर दूसरे धर्मों को ग्रहण करते हैं, तो उससे और भी अधिक दोष होने की सम्भावना होती है। यदि कोई क्षात्र- धर्म में हिंसा आदि की व्यवस्था देखकर उसे छोड़कर ब्रह्म-धर्म को निर्दोष जानकर उसे ग्रहण करता हैं, तो उसमें भी अनर्थ होने की सम्भावना है। क्योंकि ब्रह्म- स्वभाव के निर्दिष्ठ कर्म भी त्रिगुणात्मक हैं। उन कर्मों के उपकरण समूह प्राकृत द्रव्य होने के कारण उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों मे कुछ-न-कुछ दोष अवश्य ही वर्त्तमान रहता है। जैसे यज्ञ में किसी-न-किसी रूप मे प्राणियों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है। इसलिए यहाँ अग्नि का दृष्टान्त दिया गया है। अग्नि धुएँ द्वारा आवृत रहती है, वह धुआँ अग्नि का दोष है, तथापि शीत-निवारण के लिए, पाक आदि के लिए उसी अग्नि को ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार स्वधर्मविहित कर्मों का आचरण करना ही श्रेयस्कर है। जिस प्रकार अग्नि को प्रज्वलित कर कुछ अंशों में धुएँ को हटाकर अग्नि का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार भगवदर्पण के द्वारा कर्मों के दोषों को धोकर आत्मदर्शन के लिए कर्मों के ज्ञानजनक अंश की सेवा करनी चाहिए।

‘‘हे कौन्तेय! सहज (स्वाभाविक) कर्म सदोष होने पर भी त्याज्य नहीं हैं। सभी कर्मों के आरम्भ मात्र में दोष है। जिस प्रकार अग्नि हमेशा धुएँ के द्वारा आवृत रहती है, उसी प्रकार कर्म मात्र ही दोष आवृत करता सत्त्व-संशुद्धि के लिए स्वभावविहित कर्म के दोषांश का परित्यागकर उसके गुणांशका ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए।’’- श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ।।48।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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