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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तदश अध्याय
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥22॥
जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ॥22॥
भावानुवाद - ‘असत्कारः’ - अवज्ञा का फल ।।22।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
जो दान किसी अपवित्र स्थान में, अनुचित स्थान में, कुपात्र को अर्थात् नत्र्तक, वेश्या, अभाव शून्य, पापाचारी आदि पात्रों को दिया जाता है, वह तामसिक है। इसी प्रकार सत्पात्र को बिना सम्मान के और अवज्ञा पूर्वक दिया गया दान तामसिक कहलाता है।।22।।
ऊँ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्माणास्त्रिविध: स्मृत: ।
ब्रह्माणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ॥23॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया: ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मावादिनाम् ॥24॥
ऊँ,तत्, सत्- ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है; उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये ॥23॥
इसलिये वेद मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ऊँ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं ॥24॥
भावानुवाद - सामान्य भाव से यह बताया गया है कि अधिकार के अनुसार मनुष्य मात्र ही तीन प्रकार के तप, यज्ञ आदि के अधिकारी हैं। उनमें सात्त्विकों में जो ब्रह्मवादी हैं, उनके यश आदि ब्रह्म निर्देश द्वारा ही होते हैं। इसीलिए कहते हैं - ऊँ, तत्, सत् - इन तीन प्रकार के ब्रह्म-निर्देशक के नाम से साधुगण स्मरण या प्रदर्शन करते हैं। इनमें भी सभी श्रुतियों में प्रसिद्ध ‘ऊँ’ ब्रह्म का ही नाम है। जगत् के कारण के रूप में अति प्रसिद्ध और ‘अतत्’ दूर करने के कारण प्रसिद्ध है - ‘तत्’। ‘सदिति’ - हे सौम्य! पहले एक मात्र ‘सत्’ ही थे [1] इस श्रुति के अनुसार सत्। क्योंकि ‘ऊँ तत् सत्’ शब्द वाच्य ब्रह्म द्वारा ही ब्राह्मण गण, वेद समूह, यज्ञ समूह का निर्माण हुआ है, अतः ‘ऊँ’ शब्द का उच्चारण कर वर्त्तमान वेद वादियों के यज्ञ आदि सम्पादित होते हैं ।।23-24।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
“अब तात्पर्य कहता हूँ, सुनो। तपस्या, यज्ञ, दान और आहार - ये सभी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक के भेद से तीन प्रकार के हैं। सगुण-अवस्था में इन अनुष्ठानों में जो श्रद्धा रहती है, वह उत्तम, मध्यम और अधम होने पर भी सगुण और निरर्थक है। जब निर्गुण श्रद्धा अर्थात् भक्ति को उदित कराने वाली श्रद्धा के साथ ये सभी कर्म किये जाएँ, तभी ये सत्त्व-संशुद्धि रूप अभय प्राप्त करने के उपयोगी होते हैं। शास्त्र में सर्वत्र ही उसी पराश्रद्धा के साथ कर्मानुष्ठान करने का आदेश है। शास्त्रों में ‘ऊँ, तत्, सत्’ - ये तीन ब्रह्म-निर्देशक व्यवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं। उस ब्रह्म निर्देशक के साथ ब्राह्मण, वेद और यज्ञ समूह भी निर्मित हुए हैं। शास्त्र-विधि का परित्याग कर जिस श्रद्धा का अवलम्बन करोगे, वह सगुण, अब्रह्म निर्देशक एवं काम फल दायक होगी। अतएव शास्त्र-विधान में ही ‘पराश्रद्धा’ की व्यवस्था है। शास्त्र और श्रद्धा के विषय में तुम्हारी जो शंका है, वह केवल अविवेक जनित है। अएतव वेद वादिगण ब्रह्म को उद्देश्य करने वाले ऊँ-शब्द व्यवहार पूर्वक समस्त शास्त्रोक्त यज्ञ, दान, तप और क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं।” - श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।23-24।।
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