श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 486

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तदश अध्याय

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ॥2॥
श्रीभगवान बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन ॥2॥


भावानुवाद- हे अर्जुन! पहले उनकी निष्ठा श्रवण करो जो शास्त्र की विधियों का उल्लंघन नहीं कर भजन करते हैं। बाद में इन विधियों का उल्लंघन कर भजन करने वालों की निष्ठा कहूँगा। ‘स्वभावजा’ का तात्पर्य है - प्राचीन संस्कार से उत्पन्न श्रद्धा। यह भी तीन प्रकार की है।।2।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

जो लोग शास्त्री विधि-विधानों को कष्टकर जान कर अथवा आलस्य वश शास्त्रीय विधियों का परित्याग कर स्वेच्छा पूर्वक केवल पूर्व जन्मों के संस्कार से उदित लौकिक श्रद्धा पूर्वक अन्यान्य देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा तीन प्रकार की होती है - सात्त्विकी, राजसी और तामसी। किन्तु, शास्त्रविद् शुद्ध भक्तों के आनुगत्य में भगवद्भक्ति के अनुशीलन में जो श्रद्धा देखी जाती है, वह निर्गुण होती है। इसमें भी एक विचार यह है कि प्रारम्भिक अवस्था में भक्ति साधक की यह श्रद्धा सत्त्विकी हो सकती है, किन्तु साधु संग के प्रभाव से वह शीघ्र ही निर्गुण श्रद्धा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती है। उस समय वह शास्त्रों के विधि-विधानों का समुचित रूप से पालन करता हुआ श्रद्धा पूर्वक हरि नाम और हरि कथा का श्रवण-कीर्त्तन और स्मरण करता हुआ अग्रसर होने लगता है।।2।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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