श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पञ्चदश अध्याय
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥8॥
वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है ॥8॥
भावानुवाद- इन्द्रियों का आकर्षण कर वह क्या करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान् ‘शरीरम्’ इत्यादि कह रहे हैं। ईश्वर-देह और इन्द्रियों का अधिपति कर्म के वशीभूत होकर जिस स्थूल शरीर को प्राप्त करता है और जिस शरीर से बहिर्गत होता है, पूर्व शरीर से सूक्ष्मभूत के साथ इन इन्द्रियों को ग्रहण कर ही नये शरीर में गमन करता है, जिस प्रकार वायु गन्ध के आश्रय माल्य-चन्दनादि से सूक्ष्म अवयवों के साथ गन्ध को ग्रहण कर अन्य स्थान पर जाती है।।8।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
बद्धावस्था में जीव किस प्रकार दूसरा शरीर प्राप्त करता है- इसे बता रहे हैं। मृत्यु के बाद ही बद्धावस्था समाप्त नहीं होती। जीव जब तक भगवत्-भजन के द्वारा संसार से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह अपने कर्मों के संस्कार वश जन्म-जन्मान्तर को प्राप्त होता है। जन्म-जन्मान्तर कैसे होता है - इसे एक दृष्टान्त के द्वारा समझा रहे हैं। जिस प्रकार वायु फूलों से सुगन्ध को ग्रहण करती है, फूलों को अपने साथ नहीं ले जाती, फूल अपने स्थान पर ही स्थित रहता है, इसी प्रकार जीव मृत्यु के समय अपने स्थूल शरीर का परित्याग कर वासनाओं से युक्त मन और इन्द्रियों को ग्रहण कर दूसरे स्थूल देह का आश्रय करता है। इस प्रकार वह बारम्बार अपने कर्मों की वासना के अनुसार दूसरा शरीर प्राप्त करता है। श्रीमद्भागवत में भी ऐसा ही कहा गया है -
‘मनः कर्ममयं नृणामिन्द्रियैः पञ्चभिर्युतम्।
लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्त्तते।।’[1]
अर्थात्, कर्म संस्कार युक्त मन ही पाँचों इन्द्रियों के साथ एक देह से दूसरे देह में गमन करता है। आत्मा उससे भिन्न है, तथापि अहंकार के द्वारा वह मन का अनुगमन करता है। और भी,
‘देहेन जीवभूतेन लोकाल्लोकमनुव्रजन्।
भुञ्जान एव कर्माणि करोत्यविरतं पुमान्।।’[2]
“मरने के बाद ही बद्ध दशा का अन्त हो जाता है, ऐसा नहीं है। जीव कर्म के अनुसार स्थूल शरीर प्राप्त करता है और समय उपस्थित होने पर उसका परित्याग करता है। एक शरीर से अन्य शरीर में जाने के समय वह शरीर-सम्बधिनी कर्म वासना को अपने साथ ले जाता है। जिस प्रकार वायु गन्ध के आधार स्वरूप पुष्प-चन्दन इत्यादि से गन्ध लेकर अन्यत्र गमन करती है, उसी प्रकार जीव एक स्थूल शरीर से दूसरे स्थूल शरीर में सूक्ष्य अवयव के साथ इन्द्रियों को लेकर प्रयाण करता है।”- श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।8।।
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