श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 454

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पञ्चदश अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

पूर्व अध्याय में यह बताया गया है कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति से ही जीव ब्रह्मानुभूति के योग्य होता है, क्योंकि श्रीकृष्ण ही ब्रह्म के एक मात्र आश्रय हैं। वर्त्तमान अध्याय में उक्त कृष्णस्वरूप का ज्ञान भलीभाँति व्यक्त के लिए पुरुषोत्तम-योग का वर्णन कर रहे हैं। संसार के मूल आश्रय श्रीकृष्ण ही सर्वोपरि तत्त्व हैं। उनके विभिन्नांश जीव उन्हें और उनकी सेवा त्यागकर अनादिकाल से जन्म-मरण रूप संसार के प्रवाह में पड़कर विभिन्न योनियो में भ्रमण करते हुए त्रितापो के द्वारा परितप्त हो रहे है। वे पुन: पुन: कर्मफलों में असक्त होकर किसी भी प्रकार में संसार-चक्र से निकल नही पा रहे। भगवान श्रीकृष्ण अहैतु की कृपावश ऐसे असहाय जीवों को कर्मचक्र से निकालने के लिए, संसार के प्रति वैराग्य उदित करने के लिए इस अध्याय में संसार तत्त्व के विषय के विषय में बड़े ही रोचक ढंग से उपदेश से रहे हैं। वे संसार को तुलना एक पीपल के वृक्ष के साथ करते हुए इस विषय को सरल रूप में समझा रहे है- जिस प्रकार पीपल का वृक्ष असंख्या शाखा-प्रशाखा-पत्र-फूल-फल के रूप में एक विराट महावृक्ष के रूप में सुविस्तृत है, उसी प्रकार यह संसार भी ऋक्, साम, यजु: और अथर्वरूप नाना शाखाओं के नाना प्रकार के आपत मधुर काम्य कर्म प्रतिपादन श्रुतिवाक्य पत्रों द्वारा विस्तृत होकर कर्मफलबाध्य बद्ध द्वारा जीवों के निकट धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप फल देने वाला प्रतीत हो रहा है। यह इतना आपत मधुर है कि बद्धजीव यह जान नहीं पाता कि परिणाम में यह विषयमय है और उसकी और आकर्षित हो जाता है। है। किन्तु भक्त लोग उसके भक्त की विषाक्तता की उपलब्धिकर वैराग्यरूप अस्त्र द्वारा छेदन योग्य वृक्ष के रूप में इसका वर्णन करते हैं। साथ ही 'न श्व: स्थास्यति' अर्थात आगामी कल यह नही रहेगा, इसीलिए इसे अश्वस्थ वृक्ष कहा जाता है। जो लोग इस संसार को ऐसा जानते हैं, वे ही वेदज्ञ हैं। भगवान ने इस श्लोक में मायावादियों की इस मान्यता का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है कि यह संसार मिथ्या या स्वपन है। समस्त शास्त्रों एव भगवान के वचनों से यह प्रतिपादित तथ्य है कि संसार-प्रवाह सत्य और नित्य है, किन्तु परिवर्त्तनशील या नश्वर है।

श्री भगवान ने कहा- हे अर्जुन ! यदि तुम इस प्रकार सोचते हो कि वेदवाक्यों का अवलम्बनकर संसार का आश्रय लेना ही अच्छा है, तो सुनो-कर्म द्वारा निर्मित यह संसार अश्वत्थ वृक्ष विशेष है। कर्मश्रित व्यक्ति के लिए इसका नाश नही है। इस वृक्ष की जड़ ऊपर गयी है। कर्म-प्रतिपादक वेदवाक्य समूह इसके पत्ते है, इसकी शाखाएँ नीचे के भाग में फैली हुई है। अर्थात यह वृक्ष सर्वोर्द्ध्व तत्त्वस्वरूप मुझसे जीव के कर्मफल प्राप्त करने वाले के रूप में स्थापित है। जो इस वृक्ष के नश्वरत्व से अवगत हैं, वे ही इसके तत्त्व को जानने वाले है।- श्री भक्तिविनोद ठाकुर ॥1॥


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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