श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 452

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्दश अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

यदि कहो कि ब्रह्मसम्पत्ति ही सभी साधनों का फल है, तो ब्रह्मभूत व्यक्ति किस प्रकार आपके निर्गुण प्रेम का सम्भोग करते हैं, तो सुनो-अपनी नित्य निर्गण अवस्था में मैं स्वरूपत: भगवान हूँ। मेरी जड़-शक्ति मे मेरी तटस्था-शक्ति के चैतन्य-बीज के आधान के समय प्रथमोक्त शक्ति का जो आदि प्रकाश है, वही मेरा 'ब्रह्म' स्वभाव है। जड़बद्ध जीव ज्ञान-आलोचना क्रम से जब उच्चोच्च अवस्था प्राप्त करते -करते मेरे ब्रह्मधाम को प्राप्त होता है, तब वह निर्गुण अवस्था की प्रथम सीमा को प्राप्त होता है। सीमा को प्राप्त करने के पूर्व जड़विषेश-त्यागरूप एक 'निर्विशेष' भाव उपस्थित होता है, उसमें अवस्थित होकर शुद्धभक्तियोग का आश्रय होने से वह निर्विशेषता दूर होकर चिद्विशेष हो जाता है। इस क्रमानुसार से ज्ञानमार्ग में सकादि ऋषिगण और वामदेव आदि निर्विशेष आलोचकगण निर्गुण भक्तिरस रूप अमृत प्राप्त किये हैं। जिनकी मुमुक्षारूप दुर्वासनावश दुर्भाग्य क्रम से ब्रह्मतत्त्व में सम्यक अवस्थिति नहीं होती है, वे ही चरम अवस्था में निर्गुण भक्ति प्राप्त नहीं कर पाते हैं। वस्तुत: निर्गुण सविशेष तत्त्वस्वरूप मैं ही ज्ञानियों की चरमगति ब्रह्म की प्रतिष्ठा अथवा आश्रय हूँ। अमृतत्त्व, अव्ययत्व, नित्यत्व, नित्यधर्म रूप प्रेम एवं ऐकांतिक सुखरूप व्रजरस- ये समस्त ही निर्गुण सविशेषतत्त्वरूप कृष्ण-स्वरूप का आश्रय कर वर्त्तमान रहते हैं। "श्रीभक्तिविनोद ठाकुर विष्णु ही एकमात्र मुक्तिदाता हैं- 'मुक्तिप्रदाता सर्वेषां विष्णुरेव न संशय:।' श्रुति भी कहती है- 'तमेव विदित्वाति मृत्युमेति।'[1]

अर्थात उन्हें जान लेने से ही मृत्यु के कवल से उद्धार हो जाता है। पद्मपुराण में भी पाया जाता है- 'विष्णोरनुचरत्वं हि मोक्षमाहुर्मनीषिण:' अर्थात्‌, तत्त्वदर्शी मनीषियों ने भगवान के चरणकमलों की सेवा को ही मोक्ष माना है। स्कन्दपुराण में कहा गया है- 'कैवल्यद: परं ब्रह्म विष्णुरेव सनातन:।' अर्थात, श्रीविष्णु ही कैवल्य से परे और सनातन हैं॥27॥

श्रीमद्भक्तिवेदांत नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्दश अध्याय की सारार्थवर्षिणी- प्रकाशिका वृत्ति समाप्त
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्वे. उ. 3/8

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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