श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्दश अध्याय
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता: ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥2॥
इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते ॥2॥
भावानुवाद-‘साधर्म्यं’ का तात्पर्य है-सारूप्यलक्षणा मुक्ति। ‘न व्यथन्ति’-दुःख को प्राप्त नहीं होते हैं।।2।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
आत्मज्ञान प्राप्त होने पर साधक जीव भगवान का-सा धर्म प्राप्त करता है अर्थात् उसके बहुत से गुण आंशिक रूप में श्रीभगवान् के समान ही हो जाते हैं। वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, किन्तु मुक्त होने पर भी पार्षद के रूप में उसका अस्तित्व बना रहता है। वह स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर नित्य निरन्तर भगवान् के चरणकमलों की प्रेममयी सेवा में तत्पर हो जाता है। अतएव मुक्ति के बाद भी भक्तगण अपना स्वरूप त्याग नहीं करते। भगवान श्रीकृष्ण के सारे कथनों का तात्पर्य यही है कि जीवात्मा परमात्मा में सम्पूर्ण रूप से मिलकर एकाकार नहीं हो जाता, बल्कि जीवों के शुद्धस्वरूप का अस्तित्व भगवान् से पृथक् रहने पर भी रहता है और शुद्धस्वरूप में वे भगवान की प्रेममयी सेवा में सदा तत्पर रहते हैं। श्रीलचक्रवर्त्ती ठाकुर तथा श्रीधरस्वामी आदि महानुभावों ने ‘साधर्म्यं’ का तात्पर्य सारूप्य मुक्ति ही माना है। श्रीबलदेव विद्याभूषण कृत प्रमेय रत्नावली नामक ग्रन्थ के चतुर्थ प्रमेय की टीका में कहा है कि मुण्डकोपनिषद[1]के श्लोक में वर्णित ‘साम्य’ तथा गीता[2] में लिखित ‘साधर्म्यं’ शब्दों का तात्पर्य मोक्ष-अवस्था में भी जीव और ईश्वर का भेद है- ऐसा समझना चाहिए। उन्होंने ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ श्लोक के ‘ब्रह्मैव’ पद का अर्थ ब्रह्मतुल्य बताया है। ‘एव’-कार का प्रयोग तुलना के अर्थ में किया जाता है। इसलिए ‘ब्रह्मैव’ का तात्पर्य होगा-भगवान् के समान धर्म की प्राप्ति अर्थात् जन्म-मरण से रहित होना किन्तु, सृष्टि इत्यादि करने का गुण उसमें कदापि नहीं होगा। श्रीबलदेव विद्याभूषण ने वर्तमान श्लोक की टीका में लिखा है-
इदमिति-गुरुपासनयेदं वक्ष्यमाणं ज्ञानमुपाश्रित्य प्राप्य जनाः सर्वेशस्य मम नित्याविर्भूतगुणाष्टकस्य साधर्म्यं साधनाविर्भावितेन तदष्टकेन साम्यमागता: सन्तः सर्गे नोपजायन्ते, सृजिकर्मता नाप्नुवन्ति, प्रलये न व्यथेन्ते-मृति कर्मताञ्च न यान्तीति जन्ममृत्युभ्यां रहिता मुक्ता भवन्तीति मोक्षे जीव-बहुत्वमुक्तम्, “तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः“ इत्यादि श्रुतिभ्यश्चैतदवगतम्।
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