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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।22।।
किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।
भावानुवाद- मेरे भक्तों का सुख कर्मफल द्वारा प्राप्त नहीं, अपितु मेरे द्वारा प्रदत्त है। ‘नित्याभियुक्तानां’ अर्थात् जो सर्वदा ही विशेष रूप से मुझ में अभियुक्त हैं - उन पण्डितों का सुख मेरे द्वारा प्रदत्त है, इनके अतिरिक्त अन्य सभी अपण्डित हैं अथवा इसका दूसरा अर्थ है - नित्य संयोग के आकांक्षी लोगों को योग-ध्यानादि की प्राप्ति मेरे द्वारा प्रदत्त होती है ‘क्षेम’ अर्थात् उनके अपेक्षा नहीं करने पर भी मैं ही उनका पालन करता हूँ, उनका भार वहन करता हूँ। यहाँ श्री भगवान् ने ‘करोमि’ शब्द का प्रयोग न कर ‘वहामि’ का प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि उनके शरीर-पोषण का भार मैं ही वहन करता हूँ, जैसे कि गृहस्थ अपने पुत्रादि के पोषण का भार वहन करता है। अन्य लोगों की भाँति इनका योगक्षेम कर्म से प्राप्त होने वाला नहीं है। अतएव सर्वत्र उदासीन, आत्माराम, परमेश्वर आपके लिए उनके भार का वहन करने का क्या प्रयोजन है? गोपाल तापनी उपनिषद् [1]में भी कथित है- “भक्ति का अर्थ है- इनका भजन अर्थात् ऐहिक और पारलौकिक उपाधियों का परित्याग कर केवल उन भगवान् में ही जो मनोनिवेश है, उसे ‘नैष्कर्म्य’ कहते हैं।” मेरे अनन्य भक्त गण निष्काम होते हैं, इस ‘नैष्कर्म्य’ के कारण उनका जो सुख दृष्टिगोचर होता है, वह मेरे द्वारा प्रदत्त है। मेरे सर्वत्र उदासीन होने पर भी स्व-भक्त वात्सल्य को ही इसका (भक्तों के प्रति यह सुख प्रदान) कारण जानो। अतः अपने इष्ट देव के ऊपर अपने पालन-पोषण का भार डालने के कारण वे भक्त गण प्रेम रहित हैं - ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उनके द्वारा अपने भार को सर्वथा अर्पण नहीं करने पर भी मैं ही स्वेच्छा पूर्वक उसे ग्रहण करता हूँ। संकल्प मात्र से ही समस्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि करने वाले मेरे लिए यह भार भार है ही नहीं। अर्थात्, भक्त जन में आसक्त मेरे लिए अपने भक्तों का भार वहन करना उसी प्रकार अत्यन्त सुखप्रद है, जिस प्रकार लोगो को अपनी भोग्या पत्नी का भार वहन करने में सुख प्राप्त होता है।।22।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- श्री भगवान् किस प्रकार भक्तों का योगक्षेम वहन करते हैं, इसके लिए नीचे एक सत्य घटना दी जा रही है -
अर्जुन मिश्र नामक एक दरिद्र ब्राह्मण थे, किन्तु थे परम भगवद् भक्त। इन्होंने श्रीमद्भागवद्गीता की एक टीका लिखी है। ये नित्य प्रातः काल भजन कार्य से निबट कर एक प्रहर दिन चढ़ने तक श्री गीता की टीका लिखा करते थे। उसके बाद भिक्षा के लिए बाहर चले जाते। भिक्षा में जो कुछ पाते पत्नी के आगे रख देते। वे बड़े प्रेम से रन्धन करतीं, भगवान् को भोग लगाकर स्वामी को महाप्रसाद भोजन करातीं और जो कुछ बचता सन्तुष्ट चित्त से स्वयं पा लेतीं। उनके सभी कपड़े फटे-पुराने थे। केवल एक धोती कुछ अच्छी थी, जो बाहर पहन कर जाने के लिए उपयुक्त थी। जब ब्राह्मण उसे पहन कर भिक्षा के लिए बाहर जाते, तो ब्राह्मणी चिथड़ों से अपने अंगों को ढककर लज्जा निवारण करतीं। स्वामी जब भिक्षा से लौटते, तब ब्राह्मणी उसी धोती को पहनकर बाहर आती-जाती और गृह कार्यों को सम्पन्न करतीं। फिर भी दरिद्रता को भगवान् की देन समझकर दोनों सर्वदा सन्तुष्ट रहते। ‘गृह देवता श्री गोपीनाथ जी कृपा कर जो कुछ भिक्षा दे देते हैं, उसे उनको निवेदित कर महाप्रसाद पाते हैं’ - सर्वदा उनकी ऐसी ही भावना होती। इस प्रकार उनके दिन आनन्द से कटते। सांसारिक दुःख-कष्ट से वे तनिक भी विचलित नहीं होते।
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