श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 273

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान्।।20।।
इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं। इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ़ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।

भावानुवाद- इस प्रकार तीन प्रकार के उपासक भक्तगण मुझे ही परमेश्वर जानकर मुक्त होते हैं। किन्तु, जो कर्मी हैं, उन्हें मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए श्री भगवान् ‘त्रैविद्या’ इत्यादि दो श्लोक कह रहे हैं। जो ऋक्, यजुः और सामवेद - इन तीनों की विद्या को जानते हैं, वे ‘त्रैविद्या’ अर्थात् तीनों वेदों में कथित कर्म परायण हैं। वे यज्ञ द्वारा मेरी ही पूजा करते हैं। इन्द्रादि देवतागण मेरे ही रूप हैं - यह नहीं जानते हुए भी वस्तुतः वे इन्द्रादि रूप में मेरी ही पूजा करते हैं तथा यज्ञ के अवशेष सोमरस का पान करते हैं। सोमरस पीने वाले वे पुण्य लाभ कर स्वर्गसुख का भोग करते हैं।।20।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- “इस प्रकार त्रिविध उपासना में यदि भक्ति का गन्ध रहे, तभी ‘परमेश्वर’ के रूप में मेरी उपासना कर जीव क्रमशः अपने-अपने कषायों को परित्याग कर मेरी शुद्धा भक्ति लाभ रूप मोक्ष प्राप्त करती है। अहंग्रहोपासना में अपने प्रति उपासक की जो भगवद् बुद्धि है, वह भक्ति के आलोचना-क्रम से दूर होकर शुद्ध भक्ति में परिणत हो सकती है। प्रतीकोपासना में जो अन्य देवताओं के प्रति भगवद् बुद्धि है, वह तत्त्व-आलोचना और साधु-संग के क्रम से दूर होकर सच्चिदानन्द-स्वरूप मुझ में ही पर्यवसित हो सकती है। विश्वरूपोसना में जो अनिश्चित परमात्म-ज्ञान है, वह मेरे स्वरूप के आविर्भाव-क्रम से दूर होकर सच्चिदानन्द-स्वरूप मध्यामाकार मुझ में ही घनीभूत हो सकता है। किन्तु, इन त्रिविध उपासनाओं में जिसका भगवद्वैमुख्य लक्षण रूप कर्म-ज्ञान में आग्रह रहता है, उसको नित्य मंगल स्वरूप भक्ति प्राप्त नहीं होती है। ‘अभेद साधकगण’ क्रमशः भगवद्वैमुख्यवशतः मायावाद रूप कुतर्क के जाल में पतित हो जाते हैं। ‘प्रतीकोपासकगण’ ऋक्, साम और यजुर्वेद में उल्लिखित कर्म तन्त्र में आबद्ध होकर उक्त वेदत्रय की कर्मोपदेशिनी विद्यालय का अध्ययन कर सोमपान द्वारा निष्पाप होते हैं, क्रमशः यज्ञों द्वारा मेरी उपासना कर स्वर्ग-प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। वे पुण्य के फल से प्राप्य देवलोक में दिव्य देवभोगों को प्राप्त होते हैं।”- श्री भक्ति विनोद ठाकुर।।20।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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