श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 270

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय

भावानुवाद- आपने कहा - वे मेरा भजन करते हैं, परन्तु आपका भजन है क्या? इसके उत्तर में श्री भगवान् कहते हैं - वे सतत मेरा कीर्त्तन करते हैं अर्थात् मेरे कीर्त्तन में कर्मयोग की भाँति काल, देश और पात्र की शुद्धि-अशुद्धि की अपेक्षा आवश्यक नहीं है। स्मृति (विष्णु धर्मोत्तर) कहती है - “श्री हरि के नाम - कीर्तन के प्रति लुब्ध व्यक्ति के लिए देश और काल का नियम नहीं है तथा जूठे मुख की बात ही क्या, किसी भी प्रकार अशुचि (अपवित्र) अवस्था में इसका निषेध नहीं है।” वे दृढ़व्रती होकर ‘यतन्तः’ अर्थात् यत्न करते हैं, जिस प्रकार दीन गृहस्थ कुटुम्ब के पालन के लिए धन की अपेक्षा से धनी व्यक्ति के पास यत्न करते हैं, उसी प्रकार मेरे भक्त गण कीर्त्तनादि भक्ति प्राप्त करने के लिए साधुगण की सभा में यत्न करते हैं एवं भक्ति-लाभ करने पर भी पठित शास्त्रों के पाठ की भाँति पुनः पुनः इसका अभ्यास करते हैं। इतनी संख्या में नाम ग्रहण, इतनी बार प्रणति एवं इसी प्रकार परिचर्यादि अथवा एकादशी आदि व्रत करने में जो दृढ़ हैं अर्थात् जिनका नियम कभी टूटता नहीं, वे यत्नवान हैं। अवश्य करणीय है - जिनका इस प्रकार का दृढ़व्रत या नियम है, वे ही यत्नवान् हैं। ‘नमस्यन्तश्च’- यहाँ ‘च’- कार से तात्पर्य है - श्रवण, पादसेवनादि समस्त प्रकार के भक्ति अंगों का प्रयोजन है, जिनका वर्णन हुआ है। वे ‘नित्ययुक्ताः’ होते हैं अर्थात् भविष्य में मेरे नित्य संयोग की आकांक्षा करते हैं। इस श्लोक में ‘मामू कीत्र्तयते’, ‘माम् उपासते’- इन दोनों पदों का यही तात्पर्य है कि मेरा कीर्त्तनादि ही मेरी उपासना है। अतः ‘माम्’ शब्द से पुनरुक्ति दोष की आशंका नहीं है।।14।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

पूर्वोक्त महात्मागण कैसे भजन करते हैं, इस श्लोक में यही बता रहे हैं - वे सर्वदा मेरे नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं का कीर्त्तन किया करते हैं- ‘भक्तियोगो भगवति तन्नाम ग्रहणादिभिः’ [1]इस कीर्त्तनाख्या भक्ति में देशा, काल और पात्र-शुद्धि की अपेक्षा नहीं होती- ‘न देश नियमो राजन् न काल नियमस्तथा। विद्यते नात्र सन्देहो विष्णोर्नामानुकीर्त्तने ।।’ (वैष्ण चिन्तामणि) स्कन्द पुराण में भी कहा गया है- ‘चक्रायुधस्य नामानि सदा सर्वत्र कीर्त्तयेत्’ अर्थात् चक्रधारी श्री हरि का नाम सदा और सर्वत्र कीर्तनीय है। श्री चैतन्य महाप्रभुजी ने शिक्षाष्टक में ‘कीत्र्तनीय सदा हरि’ का उपदेश किया हे।

सामान्य व्यक्ति प्रचार अथवा वोट के माध्यम से महात्म नहीं बन सकता, अथवा इसके द्वारा उसे महात्मा नहीं बनाया जा सकता। इस श्लोक में स्वयं श्री कृष्ण ने महात्मा के स्वरूप-लक्षण का वर्णन किया है। आत्मा के भी आत्मा श्री कृष्ण के परम पावन नाम-रूप और लीला-कथाओं के श्रवण, कीर्त्तन और स्मरण में सदा-सर्वदा तत्पर रहने वाले पुरुष ही ‘महात्मा’ शब्द वाच्य हैं। इसके अतिरिक्त सत्कर्मी, ज्ञानी, योगी, तपस्वी तथा भगवान् को निराकार, निर्विशेष, निःशक्तिक मानने वाले व्यक्ति को गीता में महात्म नहीं कहा गया है। कोई भी व्यक्ति ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ अथवा संन्यास किसी आश्रम में सद्गुरु का पदाश्रय कर कृष्ण भक्ति का अनुशीलन करने पर यथार्थ महात्मा हो सकता है।

“ये विद्वत्-प्रतीति युक्त महात्मा भक्तगण सर्वदा मेरे नाम रूप, गुण और लीलाओं का कीर्त्तन करते हैं अर्थात् श्रवण-कीर्त्तनादि नवधा भक्ति का आचरण करते हैं। मेरे इस सच्चिदानन्द स्वरूप के नित्य दासत्त्व को प्राप्त करने के लिए वे समस्त शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्रियाओं में दृढ़व्रती होकर मेरा अनुशीलन करते हैं। जिससे कि सांसारिक कर्म में चित्त विक्षिप्त न हो, इसके लिए संसार-निर्वाह-काल में भक्ति योग द्वारा मेरी शरणापत्ति स्वीकार करते हैं।”- श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।14।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 6/3/22

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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