श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।6।।
जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो।
भावानुवाद- ‘असंग’ अर्थात् समस्त भूत मुझ में स्थित रहने पर भी वे मुझमें नहीं हैं तथा मैं समस्त भूतों में रहने पर भी उनमें नहीं हूँ- इस सम्बन्ध में दृष्टान्त देते हुए ‘यथा’ इत्यादि कह रहे हैं। वायु का स्वभाव है - सर्वदा गमन शील रहना, अतः इसे ‘सर्वग’ अर्थात् सर्वत्र गमनशील कहा गया है तथा परिणाम में यह असीम है, अतः इसे महान कहा गया है। जिस प्रकार असंग स्वभाव विशिष्ट आकाश में स्थित होने पर भी यह (वायु) आकाश में स्थित नहीं है तथा आकाश भी असंग होने के कारण वायु में स्थित होने पर भी वायु में स्थित नहीं है, उसी प्रकार असंग स्वभाव विशिष्ट समस्त भूत अर्थात् सर्वगत आकाशादि महाभूत समूह मुझमें स्थित होकर भी मुझमें अवस्थित नहीं है - इसे विचारपूर्वक निश्चय करो अर्थात् धारण करो। यदि अर्जुन यह प्रश्न करे कि अच्छा, तो आपके द्वारा उक्त ‘मेरे योगैश्वर्य को देखो’- इस योगैश्वर्य का अतर्क्यत्व दृष्टान्त द्वारा किस प्रकार सिद्ध हुआ? अर्थात्, जब आपने उदाहरण द्वारा इसे समझा ही दिया, तो यह अतर्क्य कहाँ रहा? इसके उत्तर में श्री भगवान् कहते हैं - आकाश जड़ होकर ही ‘असंग’ है, किन्तु चेतन का असंगत्व जगदधिष्ठान के अधिष्ठातृत्व होने के कारण परमेश्वर के अतिरिक्त अन्यत्र असम्भव है- इसके द्वारा ही इसका अतर्क्यत्व सिद्ध होता है। यहाँ जो आकाश का दृष्टान्त दिया गया है, वह साधारण लोगों की बुद्धि में सहज ही सिद्धान्त का प्रवेश कराने के लिए दिया गया है, प्रकृत रूप में अतक्र्य वस्तु की तुलना का कोई स्थल नहीं है।।6।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
यहाँ ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ का एक गूढ़ तात्पर्य है, वह यह कि भगवत्-तत्त्व या भगवान् का साक्षात्कार भगवान् की कृपा से ही सम्भव है। भगवान् की कृपा के बिना भगवत्-दर्शन सम्भव नहीं है। भगवत्-सेवोन्मुखी वृत्ति अर्थात् भक्ति के द्वारा भगवान् का साक्षात्कार होता है। इसकी पुष्टि ब्रह्मसंहिता में की गई है-
‘प्रेमाञ्जनच्छुरित भक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति।
यं श्यामसुन्दरं अचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।’ [1]
अर्थात्, प्रेमाञ्जन द्वारा अनुरञ्जित भक्ति-नेत्रों से ही भक्तगण अपने हृदय में श्री गोविन्द का सदैव दर्शन करते हैं। भगवान् सर्वव्यापी होने पर भी सर्वदा मध्यमाकार श्री कृष्ण स्वरूप में विराजमान रहते हैं। जिस प्रकार सूर्य पृथक् स्वस्वरूप में स्थित होकर भी अपने प्रकाश से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसी प्रकार भगवान् भी अपनी योग माया के द्वारा अपने पृथक् स्वस्वरूप में विराजमान् रहकर भी अखिल चराचर जगत् में व्याप्त हैं। इसीलिए यहाँ कृष्ण कृपापूर्वक अर्जुन को यह स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि हे अर्जुन! स्थूल इन्द्रियों के द्वारा मेरी अनुभूति या दर्शन कदापि सम्भव नहीं है। मैं तुम्हें स्वयं कृपाकर दिखा रहा हूँ। मेरी अघटन-घटन-पटीयसी योगमाया की शक्ति आश्चर्यजनक है। इसी का आश्रय कर मैं समस्त भूतों को धारण कर भी मैं इनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ।
“इस प्रकार के सम्बन्ध का जड़ीय उदाहरण सन्तोषजनक नहीं है, अतएव बुद्धजीव इस तत्त्व को धारण नहीं कर पाते हैं। तथापि, मोटे तौर पर इसे समझाने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ, विचार पूर्वक इसे भली-भाँति धारण करने में अक्षम होने पर भी तुम उपधारणा कर सकोगे (अर्थात् थोड़ा-बहुत समझ सकते हो)। आकाश एक सर्वव्यापक वस्तु है, इसमें परमाणु इत्यादि की जो चालना है, वह सर्वत्र गतिविशिष्ट है, तथापि आकाश सभी का आधार होकर भी उनसे निःसंग है। इसी प्रकार मेरी शक्ति से ही समस्त जीवों की उत्पत्ति और गति होने पर भी आकाश-सदृश मैं सर्वदा निःसंग हूँ।” - श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।6।।
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