श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 247

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टम अध्याय

अव्यक्ताद्वयक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।18॥
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं। जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।

भावानुवाद- किन्तु, जो उनके निकृष्ट त्रिलोकवासी हैं, उनका पतन प्रतिदिन होता है। इसीलिए कहते हैं - ‘अव्यक्तम्’ इत्यादि। श्रीपाद मधुसूदन सरस्वती कहते हैं- “प्रतिदिन सृष्टि-प्रलय के उपक्रम में आकाश आदि की सत्ता वर्तमान रहती है, अतः यहाँ अव्यक्त शब्द से (अव्याकृत अवस्था या प्रधान को लक्ष्य नहीं किया जा सकता) स्वापार प्रजापति ही सूचित हो रहे हैं।” उस अव्यक्त स्वापारस्थ प्रजापति से शरीर-विषय आदि रूप भोग-भूमि सफल होती है अर्थात् व्यवहार के योग्य होती है। रात्रि के आगमन से उनके निद्राकाल में प्रलय को प्राप्त होते हैं ।।18।।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।19॥

हे पार्थ! वे जीवसमूह बार बार उत्पन्न होकर रात्रि के आगमन-काल में लीन हो जाते हैं तथा पुन: दिन के आगमन काल में नियम के अधीन होकर प्रादुर्भूत होते हैं।

भावानुवाद- इसी प्रकार चराचर प्राणि समूह उत्पन्न तथा लीन होते हैं ।।19।।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।20॥
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है। जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।

भावानुवाद- उस उक्त लक्षण विशिष्ट अव्यक्त अर्थात प्रजापति हिरण्यगर्भ से भी श्रेष्ठ अर्थात् हिरण्यगर्भ के भी कारण स्वरूप जो अन्य अव्यक्त भाव है, वह सनातन है अर्थात् अनादि है।।20।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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