श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 241

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टम अध्याय

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥8॥
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरन्तर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।

भावानुवाद- इसलिए स्मरण का अभ्यास करने वाले को अन्त काल में स्वतः ही मेरा स्मरण होता है और वे इस प्रकार मुझे प्राप्त करते हैं। अतः मेरा स्मरण ही चित्त का परम योग है। इसीलिए ‘अभ्यास योगा’ इत्यादि कह रहे हैं। ‘अभ्यासः’- मेरे स्मरण की पुनः पुनः आवृति ही अभ्यास योग है। अतएव ऐसे अभ्यास योग से युक्त चित्त द्वारा जिनका अन्य विषयों की ओर धावित होने का स्वभाव नहीं है, उस चित्त से मेरा निरन्तर स्मरण करना चाहिए। उस स्मरण के अभ्यास से चित्त के स्वभाव परवि जय प्राप्त होती है।।8।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

अविच्छिन्न तैलधारावत् निरन्तर भजन की प्राप्ति के लिए अभ्यास योग का अवलम्बन करना आवश्यक है। इसलिए अभ्यास योग के द्वारा अन्यान्य विषयों से प्रत्याहार पूर्वक (हटाकर) चित्त को भगवत्-स्मरण में नियुक्त करना चाहिए। ऐसा होने से विक्षिप्त चित्त को जीतकर निरन्तर भगवत्-स्मरण के द्वारा अन्तिम समय में अनायास ही भगवत्-स्मरण उपस्थित हो जाता है। श्रीमद्भागवत में भी ऐसा कहा गया है - ‘अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः’ अर्थात् अभ्यास द्वारा योगीपुरुष मन को स्थिर करेंगे। इस प्रसंग में गीता का श्लोक [1] द्रष्टव्य है।।8।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 12/9

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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