श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 235

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञञ्च ये विदु :।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥30॥
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्दों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।

भावानुवाद- मेरी भक्ति के प्रभाव से जिनको मेरे सम्बन्ध में ज्ञान लाभ हुआ है, अन्त काल पर्यन्त भी उनका वही ज्ञान वर्तमान लाभ रहता है, दूसरों की भाँति कर्म द्वारा उपस्थापित भावी देह प्राप्ति के अनुरूप उनकी बुद्धि नहीं होती है। इसीलिए ‘साधिभूत’ इत्यादि कह रहे हैं। ‘अधिभूत’ इत्यादि की व्याख्या अगले अध्याय में होगी।।30।। श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय की साधुजनसम्मता भक्तानन्ददायिनी सारार्थवर्षिणी टीका समाप्त। श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम आध्याय की सारार्थवर्षिणी टिका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।

सारार्थवर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- श्री भगवान कह रहे हैं- जो लोग भक्ति के प्रभाव से अधिभूत तत्त्व, अधिदैव तत्त्व और अधियज्ञ तत्त्व के साथ मुझे जानते हैं, वे मरण काल में भी मुझे स्मरण कर सकते हैं। वे मृत्यु के भय से कातर होकर मुझे भूलते नहीं हैं।।30।।

श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय की सारार्थवर्षिणी-प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त। सप्तम अध्याय समाप्त।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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