श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञञ्च ये विदु :।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥30॥
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्दों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।
भावानुवाद- मेरी भक्ति के प्रभाव से जिनको मेरे सम्बन्ध में ज्ञान लाभ हुआ है, अन्त काल पर्यन्त भी उनका वही ज्ञान वर्तमान लाभ रहता है, दूसरों की भाँति कर्म द्वारा उपस्थापित भावी देह प्राप्ति के अनुरूप उनकी बुद्धि नहीं होती है। इसीलिए ‘साधिभूत’ इत्यादि कह रहे हैं। ‘अधिभूत’ इत्यादि की व्याख्या अगले अध्याय में होगी।।30।।
श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय की साधुजनसम्मता भक्तानन्ददायिनी सारार्थवर्षिणी टीका समाप्त।
श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम आध्याय की सारार्थवर्षिणी टिका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।
सारार्थवर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
श्री भगवान कह रहे हैं- जो लोग भक्ति के प्रभाव से अधिभूत तत्त्व, अधिदैव तत्त्व और अधियज्ञ तत्त्व के साथ मुझे जानते हैं, वे मरण काल में भी मुझे स्मरण कर सकते हैं। वे मृत्यु के भय से कातर होकर मुझे भूलते नहीं हैं।।30।।
श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय की सारार्थवर्षिणी-प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त।
सप्तम अध्याय समाप्त।
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