|
श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- कोई-कोई ऐसा समझते हैं कि देवताओं की आराधना करने से उन देवताओं की कृपा से ही फल प्राप्त होता है, किन्तु वर्तमान श्लोक के अनुसार यह सुस्पष्ट है कि देवगण काम्य फलों को स्वयं देने में असमर्थ हैं। भगवान् के द्वारा विहित होकर ही देवपूजकगण उन फलों को प्राप्त करते हैं। किन्तु, अज्ञानी देवपूजकगण यह नहीं जान पाते कि श्रीभगवान ने ही अन्तर्यामी रूप से इन फलों का विधान किया है। यहाँ यह देखा जाता है कि देवगण जिस प्रकार अपने पूजकों की अपने प्रति श्रद्धा उदय नहीं करा पाते, उसी प्रकार अन्तर्यामी श्रीभगवान के विधान के बिना स्वतन्त्र रूप से काम्य फलों को भी प्रदान नहीं कर सकते।।22।।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान् देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥23॥
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं।
भावानुवाद- किन्तु, उन-दन देवताओं की आराधना के द्वारा प्राप्त फल नश्वर होते हैं अर्थात् अल्पकालीन होते हैं। यदि प्रश्न हो कि आराधना में एक समान श्रम होने पर भी आप अन्य देवताओं की पूजा करने वालों के फल को नश्वर करते हैं, किन्तु अपने भक्तों की आराधना के फल को अनश्वर करते हैं - यह तो परमेश्वर आपके द्वारा अन्याय है, तो इसके उत्तर में श्री भगवान् कहते हैं - यह अन्याय नहीं है। देवपूजकगण देवताओं को ही प्राप्त होते हैं तथा मेरे पूजक मुझे प्राप्त होते हैं। जो जिनके पूजक हैं, वे उन्हें ही प्राप्त होते हैं। यह न्याय ही है। तब यदि देवतागण हीनश्वर हैं, तो उनके पूजकगण भला किस प्रकार अनश्वर होंगे और उनका भजन फल नष्ट क्यों नहीं होगा? अतः वे भक्त गण अल्प बुद्धि विशिष्ट कहे गये हैं। किन्तु, भगवान् नित्य हैं और उनके भक्तगण भी नित्य हैं, उनकी भक्ति और भक्तिफल सभी नित्य हैं। ।।23।।
|
|