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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
प्रथम अध्याय
- न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥31॥
- न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
हे श्रीकृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? ॥32॥
भावानुवाद- ‘श्रेयो न पश्यामिति’ अर्थात् श्रेयः नहीं देखता हूँ। योगयुक्त होने वाले परिव्राजक तथा युद्ध में निहित वीर- ये दोनों ही प्रकार के पुरुष सूर्य मण्डल में अवस्थान करते हैं - इन वाक्यों से यह विदित होता है कि युद्ध में मारे गये व्यक्ति का मंगल होता है, परन्तु मारने वाले की किसी भी प्रकार की सुकृति नहीं होती है। यदि प्रश्न हो कि युद्ध में हत्या करने के फलस्वरूप यश और राज्य सुख की प्राप्ति तो होगी, इसलिए अर्जुन के लिए युद्ध करना श्रेयस्कर है, तो इसके उत्तर में कहते हैं - ‘न काङ्क्षे’ अर्थात् मै। इसकी कामना नहीं करता हूँ।।31।।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥32॥
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥33॥
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: ।
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा श्याला: सम्बंधिनस्तथा
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्न्तोऽपि मधुसूदन॥34॥
हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं। हे मधुसूदन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें? हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी?॥32-34॥
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