श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 193

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

सर्वभूतस्थमात्मनं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शनः॥29॥
वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है। निस्सन्देह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर को सर्वत्र देखता है।

भावानुवाद-‘सर्वभूतस्थमात्मानम्’ इत्यादि से उन जीवन्मुक्तों के ब्रह्मसाक्षातकार दर्शा रहे हैं। वे प्रत्यक्ष भाव से ऐसा अनुभव करते हैं कि सभी भूतों में परमात्मा का अधिष्ठान है और परमात्मा ही सभी भूतों के अधिष्ठान है। ‘योगयुक्तात्मा’ अर्थात् ब्रह्माकार अन्तःकरणवाले समदर्शी हैं अर्थात् वे सर्व़त्र ब्रह्म का ही दर्शन हैं।।29।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

“वह ब्रह्मसंस्पर्श-सुख कैसा है-इसे ही संक्षेप में बता रहा हूँ-समाधियुक्त योगी के दो व्यवहार हैं-भाव और क्रिया। उनका भाव-व्यवहार इस प्रकार का होता है-वे सभी भूतों में आत्मा को तथा आत्मा में सभी भूतों का दर्शन करते हैं। क्रिया-व्यवहार में भी वे सर्वत्र समदर्शी हैं। आगे के दो श्लोकों में भाव एवं एक श्लोक में क्रिया की व्याख्या कर रहा हूँ।।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।29।।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वंञ्च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥30॥
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता।

भावानुवाद-‘यो माम्’ इत्यादि के द्वारा उस अपरोक्ष अनुभव का फल बता रहे हैं-उनके लिए मैं ‘ब्रह्म’ अदृश्य नहीं होता हूँ। इस प्रकार उस योगी के लिए मेरी प्रत्यक्षता नित्य (शाश्वत) हो जाने के कारण वे योगी अर्थात् मेरे उपासक कभी भी भ्रष्ट नहीं होते हैं।।30।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

अपरोक्षानुभवी साधकों के लिए भगवान अदृश्य नहीं रहते तथा वैसे साधक भी भगवान् के लिए अदृश्य नहीं होते अर्थात् सर्वदा परस्पर साक्षात्कार के कारण वे उपासक भ्रष्ट नहीं होते।

“जो सर्वत्र मेरा दर्शन करते हैं और मुझमें ही समस्त वस्तुओं का दर्शन करते हैं, मैं उनका ही होता हूँ अर्थात् शान्त रति का अतिक्रमकर हम लोगों के बीच ‘मैं उनका हूँ’ और ‘वे मेरे हैं’-इस प्रकार का एक सम्बन्धयुक्त प्रेम उत्पन्न होता है। इस सम्बन्ध का उदय होने पर मैं उन्हें शुष्क निर्वाणरूप सर्वनाश प्रदान नहीं करता हूँ। वे मेरे दास होने के कारण और नष्ट नहीं हो सकते हैं।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।30।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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