श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 190

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

“इस प्रकार योगाभ्यास द्वारा क्रमशः विषयों से विरक्ति होने से चित्त समस्त जड़-विषयों से संयमित जो जाता है और तब समाधि अवस्था उपस्थित होती है। उस अवस्था में परमात्माकार अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का दर्शन कर उससे उत्पन्न सुख का अनुभव करते हैं। पतञ्जलि मुनि ने जिस दर्शनशास्त्र का प्रकाश किया है, वही शुद्ध अष्टांगयोग विषयक शास्त्र है। इसके अर्थ को न समझने के कारण ही इसके टीकाकारगण इस प्रकार कहते हैं कि वेदान्तवादिगण आत्मा के चिदानन्दमयत्व को ही ‘मोक्ष’ कहते हैं, किन्तु यह अयुक्त (गलत) है, क्योंकि यदि कैवल्य-अवस्था में आनन्द को माना जाय तो संवेद्य-संवेदनरूप द्वैतभाव को स्वीकार करने के कारण कैवल्य की हानि होगी। परन्तु, पतन्जलि मुनि ऐसा नहीं कहते हैं, उन्होंने अपने शेष-सूत्र में (अंतिम सूत्र में) मात्र इतना ही कहा है-

‘पुरुषार्थशून्यानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं
स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।’

अर्थात् जब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों से रहित होने पर समस्त गुण क्षणिक विकार उत्पन्न न करें, तभी चित्-धर्म का कैवल्य होता है। इसके द्वारा स्वरूप में उसकी अवस्थिति होती है, तभी उसे ‘चितिशक्ति’ कहते हैं। सूक्ष्मरूप से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि पतन्जलि ने चरम अवस्था में आत्मा के गुणों का ध्वंस स्वीकार नहीं किया बल्कि केवल गुणों के अविकारत्व को स्वीकार किया है। ‘चितिशक्ति’ शब्द का तात्पर्य ‘चित्-धर्म’ होता है। अविकारत्व के दूर होने पर स्वरूप-धर्म का उदय होता है। प्राकृत सम्बन्धयोग में आत्मा की जो दशा होत है, उसी का नाम ‘आत्मगुणविकार’ है। उसके नष्ट हो जाने पर आत्मशक्ति, आत्मगुण या आत्मधर्म में जो आनन्द है, उसका लोप हो जाएगा-पतन्जलि की ऐसी शिक्षा नहीं है। प्रकृति के विकार से रहित आनन्द ही प्रतिबुद्ध (उत्पन्न) होता है, वह आनन्द ही सुखस्वरूप है, यही योग का चरमफल है। यह बाद में प्रदर्शित होगा कि इसे ही भक्ति कहते हैं। समाधि दो प्रकार की होती है-सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सवितर्क सविचार आदि के भेद से सम्प्रज्ञात समाधि अनेक प्रकार की होती है। परन्तु, असम्प्रज्ञात समाधि एक ही प्रकार की होती है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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