श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 183

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

योगी युञ्जीत सततमात्मनं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥10॥
योगी पुरुष निर्जन स्थान में एकाकी निवास करते हुए चित्त और देह को संयतकर आशारित होकर एवं विषया को अस्वीकार कर मन को सर्वदा समाधियुक्त करेंगे।

भावानुवाद- अब ‘योगी’ इत्यादि से लेकर ‘स योगी परमो मतः’[1] तक अंगसहित योग का नियम बता रहे हैं। योगी योगारूढ़ आत्मा को अर्थात मन को समाधियुक्त करेंगे।।10।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- योगारूढ़ व्यक्ति का लक्षण बताकर तेईस श्लोकों में इसके साधन का उपदेश दे रहे हैं। योगसाधक निष्काम भगवत्-अर्पित कर्मयोग का अवलम्बन कर भोग्य विषयों से मन का प्रत्याहार कर उसे भगवान् की चिन्ता में समाधिस्थ करेंगे। वे निर्जन स्थान में चित्त को संयमितकर, योग के प्रतिकूल व्यापार का वर्जनकर, दृढ़ वैराग्यपूर्वक निस्पृह होकर साधन करेंगे।।10।।

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥11॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविश्रुद्धये॥12॥
योगाभ्यास के लिए योगी एकान्त स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे। आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा। यह पवित्र स्थान में स्थित हो। योगी को चाहिए कि इस पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाय और मन, इन्द्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिन्दु पर स्थित करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करे।

भावानुवाद- प्रतिष्ठाप्य का तात्पर्य है-स्थापितकर। ‘चेलाजिनकुशोत्तरम्’-कुशासन के ऊपर मृग-चर्मासन, उसके ऊपर वस्त्र का आसन रखकर। ‘आत्मा’ अर्थात् अन्तःकण रकी शुद्धि के लिए विक्षेप शून्य होकर भी अति सूक्ष्मतापूर्वक ब्रह्मसाक्षात्कार की योग्यता को प्राप्त करने के लिए एकाग्र बुद्धि भी चाहिए। कठोपनिषद्[2] में भी कहा गया है-
‘दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या’
अर्थात् उसका एकाग्र बुद्धि से दर्शन करते हैं।।11-12।।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 6/32
  2. 1/3/12

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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