श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 181

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पष्ठ अध्याय

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनैवात्मत्मना जितः।
अनात्मस्तु शत्रुत्वे वर्त्तेतात्मैव शत्रुवत्॥6॥
जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया इसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।

भावानुवाद- वह (मन) किसका बन्धु और किसका शत्रु है-इसके उत्तर में ‘बन्धु’ इत्यादि कह रहे हैं। जिस ‘आत्मा’ अर्थात् जीव के द्वारा ‘आत्मा’ अर्थात् मन जीता जा चुका है, मन उस जीव के लिए बन्धु है। किन्तु, ‘अनात्मा’ अर्थात् अजित मनवाले के लिए मन ही शत्रुवत् अर्थात् अपकारी जैसा व्यवहार करता है।।6।।

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥7॥
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक से हैं।

भावानुवाद- अब तीन श्लोकों के द्वारा योगारूढ़ पुरुष के लक्षणों को बता रहे हैं। जो जितात्मा है अर्थात् जिन्होंने अपने मन को जीत लिया है, जो प्रशान्त हैं अर्थात् राग-द्वेषादि से रहित हैं, वे सम्यक् रूप से समाधिस्थ आत्मा होते हैं, वे शीत-उष्ण और मान-अपमान के आने पर भी अविचलित रहते हैं।।7।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

मूल श्लोक में उद्धृत ‘परम्-आत्मा’ पद के द्वारा परमेश्वर-परमात्मा को लक्ष्य नहीं किया गया है, बल्कि आत्मा अर्थात् जीवात्मा को ही लक्ष्य किया गया है। इस ‘परम्’ का अन्वय ‘समाहित’ पद से है अर्थात् उपरोक्त लक्षणों से युक्त आत्मा अतिशयरूपेण समाधिस्थ होता है। श्रीविश्वनाथ चक्रवर्त्ती और श्रीबलदेव विद्याभूषण ने भी कहा है कि यहाँ ‘परम’ शब्द अतिशयार्थ बोधक है।।7।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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