श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 167

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय

न कर्त्तत्त्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्त्तते॥14॥
शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।

भावानुवाद- यदि प्रश्न हो कि वस्तुतः जीव के कर्त्तत्त्व आदि नहीं हैं, तो ईश्वर रचित संसार में सर्वत्र जीव को कर्ता, भोक्ता आदि देखकर ऐसा लगता है, मानो ईश्वर ने ही बलपूर्वक उनका कर्त्तत्त्वादि सृष्ट किया है। यदि ऐसा हो, तो परमेश्वर में वैषम्य, नैर्घृण्य आदि दोषों की सम्भावना होती है। इसके उत्तर में कहते हैं-नहीं, नहीं, ‘न कर्त्तत्त्वम्’, उन्होंने न तो कर्त्तत्त्व, न ही कर्त्तव्यरूप में कथित समस्त कर्म और न ही कर्मफल का संयोग अर्थात् भोगों को सृष्ट किया है। अपितु, जीव को कर्त्तृत्वादि अभिमान में आरोहरण कराने के लिए जीव का स्वभाव अर्थात् अनादि अविद्या ही प्रवृत्त होती है।।14।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- कर्म में जीव का कर्त्तत्त्व नहीं है-ऐसा कहने से कोई यह न समझ ले कि एकमात्र परमेश्वर की प्रेरणा से ही जीव कर्म में प्रवृत्त हो रहा है। ऐसा मानने से परमेश्वर में वैषम्य, निष्ठुरतादि दोषों को स्वीकार करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त कर्मफल के साथ जीव के संयोग में भी भगवान् का कोई कर्त्तत्त्व नहीं है। यह संयोग जीव की अनादि अविद्या के कारण ही होता है अर्थात् अज्ञानात्मिका दैवी माया (प्रकृति) जीवों के इस स्वभाव का प्रवर्तन करती है। ऐसी अविद्या से उत्पन्न हुए स्वभावयुक्त लोगों को ही परमेश्वर कर्मों में नियुक्त कर देते हैं। वे स्वयं जीवों में कर्त्तृत्वादि को उत्पन्न नहीं करते- ‘वैषम्य-नैर्घृण्ये दोषर्न सापेक्षत्वात्तथा हि दर्शयति’-[1]

इस सूत्र के द्वारा परमेश्वर को वैषम्य और निष्ठुरता आदि दोषों से सम्पूर्ण रूप से मुक्त बताया गया है।

श्रुति के अनुसार जैसे ब्रह्म अनादि है, वैसे ही जीवों का कर्मसंस्कार भी अनादि है। परमेश्वर उन कर्मों के संस्कार के अनुसार जीवों को उत्तरोत्तर नियुक्तमात्र करते हैं। अतः परमेश्वर में वैषम्य आदि का दोष युक्तिसंगत नहीं है। [2]

भविष्य पुराण में भी ऐसा कहा गया है-“कर्म संस्कार के अनुसार ही श्रीविष्णु जीव को स्थूल कर्मों में नियुक्त करते हैं। इसलिए जीवों के संस्कार अनादि होने के कारण परमेश्वर किसी भी प्रकार दोष के भागी नहीं हैं।”

“यदि कहो कि कर्मसंस्कार के अनुसार ही परमेश्वर जीवों को कर्म में प्रवृत्त कराते हैं, तो ऐसा मानने से ईश्वर भी स्वाधीन नहीं, वरं कर्मपरतन्त्र हैं-यह मानना पड़ेगा। इसके उत्तर में कहते हैं-नहीं, ऐसा नहीं है, क्योंकि मूलतः कर्मसत्ता भी ईश्वर के अधीन रहने के कारण अनादि जीव-स्वभाव के अनुरूप ही परमेश्वर जीव को कर्म में प्रवृत्त कराते हैं। ईश्वर इस स्वभाव को पलट देने में समर्थ होने पर भी ऐसा नहीं करते। इस प्रकार वे सभी अवस्थाओं में वैषम्यरहित हैं।”-गोविन्दभाष्य।।14।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्र. सू. 2/1/34
  2. छा. उ. 6/2/1

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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