श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 160

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
पंचम अध्याय

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥2॥
श्रीभगवान ने उत्तर दिया– मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।

भावानुवाद- कर्मयोग विशिष्टता प्राप्त करता है अर्थात श्रेष्ठ है। इसके द्वारा कर्म करने पर भी ज्ञानी को कोई दोष नहीं होता है। अपितु, निष्काम कर्म के द्वारा चित्तशुद्धि में वृद्धि होने से ज्ञान में भी दृढ़ता आती है। किन्तु, यदि कभी संन्यासी के चित्त में विकार उत्पन्न हो जाय, तो उसे शान्त करने के लिए क्या कर्म का निषेध है? इसके उत्तर में कहते हैं कि चित्त का वैगुण्य ही ज्ञानाभ्यास में बाधक है, इस अवस्था में और विषयग्रहण करने से वह वान्ताशी हो जाता है।।2।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीभगवान् कह रहे हैं-ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) तथा निष्काम कर्मयोग दोनों ही श्रेयस्कर हैं। तथापि, कर्मसंन्यास की अपेक्षा निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें पतन की सम्भावना कम है। किन्तु, कर्मत्यागी संन्यासी में कदाचित् विषयभोग की इच्छा होने से उसका पतन होने पर उसे वान्ताशी कहा जाता है। श्रीमद्भागवत में भी ऐसा विचार देखा जाता है-

‘यः प्रव्रज्य गृहात् पूर्व त्रिवर्गावपनात् पुनः।
यदि सेवेत तान् भिक्षुः स वै वान्ताश्यपत्रपः।।’[1]

अर्थात, यदि कोई व्यक्ति त्रिवर्ग-साधक संन्यास आश्रम का परित्याग कर पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है, तो उसे वान्ताशी अर्थात वमनभोजी निर्लज्ज कहा जाता है।

श्रीमद्भावगत में और भी कहा गया है-दुराचारी ज्ञानी निन्दनीय होता है, किन्तु अनन्य भक्त सुदुराचारी होने पर भी वैसा निन्दनीय नहीं होता है। गीता के ‘अपिचेत्सुदुराचारो’ श्लोक से इस विचार की पुष्टि होती है। यहाँ एक बात स्मरण रखना उचित है कि कर्मकाण्ड तथा कर्मयोग एक नहीं हैं। शास्त्रविहित आचरण को ही कर्म कहते हैं। जिस समय जीव स्वयं को कर्मों का कर्ता तथा कर्मफलों भोक्ता मानकर कर्म का आचरण करता है, उस समय उसका नाम कर्मकाण्ड होता है। उस स्थिति में वेदविहित सत्कर्म भी संसार-बन्धन का कारण होता है। कर्मकाण्ड के द्वारा भगवान् के साथ योग नहीं होता। इसलिए सभी शास्त्रों में कर्मकाण्ड की निन्दा की गई है। किन्तु, निष्काम भगवत्-अर्पित कर्म के द्वारा ही भगवान से योग स्थापित किया जा सकता है, अतः यही कर्मयोग है। इसे भगवत्-धर्म का प्रारम्भ अथवा आभास कहा जा सकता है। इसे भक्ति का द्वार भी कहा जा सकता है अर्थात् कर्मयोग के द्वारा गौणरूप में भगवान् के साथ योग होता है। इसीलिए गीता [2] में ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ कहा गया है।।2।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 7/15/36
  2. 2/48

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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