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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
श्रीभक्तिविनोद ठाकुर
श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने भी कहा है-
जो लोग संकीर्तन यज्ञ के माध्यम से श्रीकृष्ण का भजन करते हैं- उनका ही जीवन सार्थक है, वे ही सुमेधा (बुद्धिमान्) हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सभी मूर्ख और आत्मघाती हैं। समस्त प्रकार के यज्ञों में कृष्णनाम यज्ञ ही श्रेष्ठ है। कोटि-कोटि अश्वमेध यज्ञों के फल को एक कृष्णनाम के बराबर मानने वाले लोग पाषण्डी हैं। यमराज ऐसे पाषण्डियों को नाना प्रकार की यातनाओं द्वारा दग्ध करते हैं-
‘संकीर्तन प्रवर्त्तक श्रीकृष्णचैतन्य।
संकीर्त्तन-यज्ञे ताँरे भजे सेई धन्य।।
सेइ त’ सुमेधा, आर कुबुद्धि संसार।
सर्व-यज्ञ हइते कृष्णनामयज्ञ-सार।।
कोटि अश्वमेध एक कृष्णनाम सम।
जेई कहे, से पाषण्डी, दण्डे तारे यम।।’-[1]
और भी, कृष्ण-मंत्र के द्वारा सहजरूप में ही संसार-बन्धन खुल जाता है और कृष्ण नाम से कृष्ण की प्रेममयी सेवा की प्राप्ति होती है, इसलिए कलिकाल में नाम के अतिरिक्त जितने भी प्रकार के यज्ञ हैं, वे सभी स्वरूपधर्म नहीं होने के कारण व्यर्थ हैं।
‘कृष्णमन्त्र हैते हबे संसारमोचन। कृष्णनाम हैते पाबे कृष्णेर चरण।।
नाम बिना कलिकाले नाहि आर धर्म। सर्वमन्त्र सार,-नाम-एइ-शास्त्रमर्म।।;[2]
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