श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधाः॥
जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास (उद्यम) इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है, उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है। उसे ही साधु पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि से कर्मफलों को भस्मसात् कर दिया है।
भावानुवाद- पूर्वकथित विषय को ‘यस्य’ इत्यादि पाँच श्लोकों में विस्तारपूर्वक बताया जा रहा है। ‘कामसंकल्पवर्जिताः’-फलाकांक्षा-रहित; ‘समारम्भाः’-भलीभाँति आरम्भ किये गये सभी कर्म; ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्मा’-जिनके शास्त्रविहित या निषिद्ध सभी कर्म ज्ञानरूप अग्नि से दग्ध हो गये हैं। इसके द्वारा सतरहवें श्लोक में वर्णित ‘विकर्म की गति समझनी चाहिए’-यह भी विवृत हुआ। इस प्रकार जैसे अधिकारी के लिए कर्म को अकर्म के रूप में देखना उचित है, उसी प्रकार विकर्म को भी अकर्म के रूप में देखना उचित है। यही पूर्वश्लोको की संगति है। इसे बाद के श्लोकों [1] में बताया जाएगा।।19।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- जो लोग फलाकांक्षा से रहित होकर सारे कर्मो का अनुष्ठान करते हैं, वे निष्काम कर्मयोग से उदित ज्ञानाग्नि के द्वारा शास्त्रविहित और निषिद्ध समस्त कर्मों को जला डालते हैं। ऐसे महात्मा को ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्मा’ कहा जाता है।। 19।।
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः॥
अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता।
भावानुवाद-‘नित्यतृप्त’ का तात्पर्य है-नित्य निज-आनन्द में तृप्त रहते हैं और ‘निराश्रय’ का तात्पर्य है-अपने योगक्षेम के लिए किसी का आश्रय ग्रहण नहीं करते हैं।।20।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- टीका में उद्भृत ‘योग’ शब्द का तात्पर्य है-अप्राप्त वस्तु का लाभ तथा ‘क्षेम’ का तात्पर्य है-प्राप्त वस्तुओं की रक्षा।।20।।
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