श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
यदि प्रश्न हो कि अच्छा, जब आप अविनाशी होकर अनश्वर मत्स्य-कूर्मादि स्वरूपों को ग्रहण करते हैं, तब क्या आपके वर्तमान आविर्भूत स्वरूप और पूर्व के आविर्भूत स्वरूपों की एक साथ उपलब्ध नहीं होती है, तो इसके उत्तर में कहते हैं-“आत्ममायया’ अर्थात् आत्मभूता जो माया है, उकसे द्वारा यह कार्य होता है। चित्त्-शक्ति की वृत्ति अर्थात् योगमाया द्वारा मेरे स्वरूप का आवरण और प्रकाशन होता है। इसकी सहायता से ही पूर्वकाल में अवतीर्ण स्वरूपों को पहले ही आवृतकर वर्तमान स्वरूप प्रकाश करते हुए मैं आविर्भूत होता हूँ।” श्रीधरस्वामिपाद अपनी टीका में लिखते हैं- “मैं ‘आत्ममाया’ अर्थात् सम्यक् प्रच्युत ज्ञान, बल वीर्यादि शक्ति के द्वारा ही आविर्भूत हुआ करता हूँ।” श्रीरामानुजाचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं-“श्रीभगवान् आत्ममाया अर्थात् आत्मज्ञान के द्वारा आविर्भूत होते हैं। ‘माया वयूनं ज्ञानम्’-यहाँ माया शब्दज्ञान का पर्यायवाची है, अभिधान में ऐसा भी कहा गया है। इस माया के सहयोग से ही भगवान् प्राचीन जीवों के शुभ-अशुभ को जानते हैं।” श्रीमधुसूदन सरस्वती के अनुसार देह-देहिभावशून्य मुझ भगवान् वासुदेव में ऐसी प्रतीति माया-मात्र है।।6।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
(क) श्रीभगवान में देह और देही का भेद नहीं होता-‘देह-देहि विभागश्च नेश्वरे विद्यते क्वचित्’। (कूर्मपुराण) जीव के देह और देही में भेद होता है अर्थात् जीव के स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर देही अर्थात् जीवात्मा से भिन्न होते हैं।
श्रीचैतन्य चरितामृत में इसे और भी स्पष्ट किया गया है-
‘देह-देहीर, नाम-नामीर कृष्णे नाहि ‘भेद’।
जीवेर धर्म-नाम-देह-स्वरूपे ‘विभेद’।।’[1]
अर्थात् कृष्ण में नाम-नामी, देह-देही इत्यादि का भेद नहीं है, किन्तु जीव के धर्म, नाम और देह का उसके स्वरूप से भेद है।
(ख) भगवान् अज अर्थात् जन्मरहित हैं। वे स्वेच्छावश अपनी योगमायारूप चित्-शक्ति का आश्रय लेकर अपने नित्य शरीर को इस जगत् में प्रकाशितकर सरल-सहज रूप में ऐसी लीलाएँ करते हैं, मानो वे साधारण बालक हों। तथापि उनका सच्चिदानन्दमय शरीर स्थूल और लिंग शरीर के द्वारा आवृत नहीं होता। इसके विपरीत अणुचित् जीव भगवान् की माया-शक्ति के प्रभाव से वशीभूत होकर कर्मसंस्कार के अनुरूप लिंग और स्थूल शरीर धारण कर पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं।
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