श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 116

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

सत्त्वगुण में प्रतिष्ठित ब्राह्मणों के लिए अहिंसा आदि तथा रजोगुण सम्पन्न क्षत्रियों का युद्ध आदि करना ही स्वधर्म है। अतः क्षत्रियों के लिए युद्ध इत्यादि में प्रवृत्ति ही स्वधर्म है। संग्राम में निधन होने पर भी वह स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला होने के कारण श्रेष्ठ है।

“स्वधर्म का पालन करते-करते उच्च धर्म की प्राप्ति से पहले ही यदि मृत्यु भी हो जाती है, तब भी वह मंगलजनक है क्योंकि परधर्म किसी अवस्था में निर्भय नहीं होता। किन्तु, निर्गुण भक्ति लिए पूर्वोक्त विचार उपयुक्त नहीं होता। निर्गुण भक्ति होने पर बिना किसी सन्देह के स्वधर्म का त्याग किया जा सकता है, क्योंकि उस समय नित्य धर्म अर्थात् स्वरूप धर्म ही स्वधर्म के रूप में प्रकाशित होता है। उस स्थिति में देह और मन का औपाधिक स्वधर्म परधर्म हो जाता है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर

‘देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किंकरो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मना यः शरणं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्त्तम्।।’[1]

‘तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावत्र जायते।।’[2]

अर्थात जिन्होंने समस्त प्रकार के कर्मों का त्यागकर एकमात्र शरण्य कृष्ण का आश्रय ग्रहण किया है, वे देव, ऋषि, भूत, आप्त और पितरों के ऋणी नहीं रहते हैं। जब तक कर्मफल भोग से विरक्ति उत्पन्न न हो अथवा भक्ति मार्ग में मेरी लीला-कथाओं के प्रति श्रद्धा न हो, तभी तक कर्म का अनुष्ठान कर्तव्य है। त्यागी या भगवद्भक्तों को कर्मानुष्ठान का प्रयोजन नहीं है।।35।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 11/5/41
  2. श्रीमद्भा.11/20/9

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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