श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
सत्त्वगुण में प्रतिष्ठित ब्राह्मणों के लिए अहिंसा आदि तथा रजोगुण सम्पन्न क्षत्रियों का युद्ध आदि करना ही स्वधर्म है। अतः क्षत्रियों के लिए युद्ध इत्यादि में प्रवृत्ति ही स्वधर्म है। संग्राम में निधन होने पर भी वह स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला होने के कारण श्रेष्ठ है।
“स्वधर्म का पालन करते-करते उच्च धर्म की प्राप्ति से पहले ही यदि मृत्यु भी हो जाती है, तब भी वह मंगलजनक है क्योंकि परधर्म किसी अवस्था में निर्भय नहीं होता। किन्तु, निर्गुण भक्ति लिए पूर्वोक्त विचार उपयुक्त नहीं होता। निर्गुण भक्ति होने पर बिना किसी सन्देह के स्वधर्म का त्याग किया जा सकता है, क्योंकि उस समय नित्य धर्म अर्थात् स्वरूप धर्म ही स्वधर्म के रूप में प्रकाशित होता है। उस स्थिति में देह और मन का औपाधिक स्वधर्म परधर्म हो जाता है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर
‘देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किंकरो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मना यः शरणं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्त्तम्।।’[1]
‘तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावत्र जायते।।’[2]
अर्थात जिन्होंने समस्त प्रकार के कर्मों का त्यागकर एकमात्र शरण्य कृष्ण का आश्रय ग्रहण किया है, वे देव, ऋषि, भूत, आप्त और पितरों के ऋणी नहीं रहते हैं। जब तक कर्मफल भोग से विरक्ति उत्पन्न न हो अथवा भक्ति मार्ग में मेरी लीला-कथाओं के प्रति श्रद्धा न हो, तभी तक कर्म का अनुष्ठान कर्तव्य है। त्यागी या भगवद्भक्तों को कर्मानुष्ठान का प्रयोजन नहीं है।।35।।
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