श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
अजितेन्द्रिय व्यक्ति विवेकवान् होने पर भी शास्त्र-ज्ञान के द्वारा अपनी इन्द्रियों का निग्रह करने में समर्थ नहीं हो पाता-
‘स्तम्भयन्नात्मनाऽऽत्मानं यावत्सत्त्वं यथाश्रुतम्।
न शशाक समाधातुं मनो मदनवेपितम्।।’[1]
अर्थात स्वेच्छाचारिणी स्त्री का दर्शन कर अजामिल का चित्त क्षुब्ध हो उठा। उन्होंने धैर्य और शास्त्रज्ञान के द्वारा अपने चित्त को संयत करने की भरसक चेष्टा की, किन्तु मदनवेग से कम्पित मन के वेग को नहीं होक सके। किन्तु, साधुसंग के प्रभाव से प्रबल दुर्वासनाएँ भी दूर हो जाती हैं-
‘ततो दुःसंगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एवास्यच्छिन्दन्ति मनोव्यासंगमुक्तिभिः।।’[2]
अर्थात साधुगण अपनी वीर्यवती वाणी के द्वारा मन की विपरीत आसक्तियों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। ‘व्यासंग’ का तात्पर्य है-भगवत्-विमुख करने वाली आसक्ति। यहाँ ‘एव’-कार द्वारा केवल सन्तों की वीर्यवती वाणी को ही समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त् सत्कर्म, तीर्थ, देवता, शास्त्रज्ञानादि में ऐसा सामर्थ्य नहीं है, जो विरुद्ध आसक्ति को नष्ट कर सके-ऐसा समझना चाहिए।
“हे अर्जुन! ऐसा मत समझो कि अनात्म और आत्म विचारपूर्वक प्राकृत गुण-कर्म को सहसा ही त्यागकर संन्यासधर्म का आश्रय करने से विद्वान् पुरुष का मंगल होगा। ज्ञानवान् होनेपर भी बुद्धजीव बहुकाल से आदृत अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार ही चेष्टा करेंगे। अचानक ही निग्रह का अवलम्बन करने से ही प्रकृति (स्वभाव) का परित्याग होता है-ऐसा नहीं है। सभी बद्धजीव सहज में ही बहुकाल से अभ्यस्त-चेष्टारूपी प्रकृति (स्वभाव) का अवलम्बन करेंगे। उस प्रकृति का त्याग करने का उपाय यह है कि उस प्रकृति में अवस्थित होकर सतर्कतापूर्वक प्रकृति के अनुयायी सभी कर्मों को करना चाहिए। जब तक हृदय में भक्तियोग के लक्षण से युक्त वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है, तब तक भगवदर्पित निष्काम कर्मयोग ही एकमात्र आत्मकल्याण का उपाय है। क्योंकि, उसमें स्वधर्म-पालन और स्वधर्म-संस्कार दोनों ही फल एकसाथ सम्भव हैं। स्वधर्म का त्याग करने से उत्पथ-गमन ही चरम फल होता है। जहाँ मेरी कृपा से या भक्तों की कृपा से हृदय में भक्तियोग आविर्भूत होता है, वहाँ मेरे लिए अर्पित निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा उत्कृष्ट पन्था लाभ करने के कारण इस प्रकार के स्वधर्म-पालन विधि की आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त सर्वत्र ही मेरे लिए अर्पित निष्काम कर्मयोग ही श्रेयः है।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।33।।
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