श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 111

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥30॥
हे अर्जुन! अपने सारे कार्यों को मुझमें समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर, लाभ की आकांशा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना तथा आलस्य से रहित होकर युद्ध करो।

भावानुवाद- अतएव हे अर्जुन! तुम अध्यात्मचेतः द्वारा अर्थात् आत्मनिष्ठ चित्त द्वारा कर्मसमूह मुझे समर्पित कर निराशी अर्थात् निष्काम, निर्मम अर्थात् समस्त विषयों में ममताशून्य हाकर युद्ध करो, विषयनिष्ठायुक्त चित्त द्वारा नहीं।।30।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को लक्ष्यकर सर्वसाधारण के लिए यह उपदेश्ज्ञ दे रहे हैं कि कर्तापन का अहंकार और फल की कामना से रहित होकर विहित कर्मों का आचरण करना चाहिए। यहाँ ‘कर्म’ का तात्पर्य लौकिक और वैदिक सभी प्रकार के कर्मों से है।

‘सर्वशः’-सभी विषयों में अर्थात् देह-गेह, पुत्र-भार्या, भ्राता आदि के विषय में ममताशून्य होकर कर्मों का आचरण करना चाहिए। यहाँ ‘युद्ध करो’ का अभिप्राय है-विहित कर्मों को करना चाहिए।।30।।

ये ते मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥31॥
जो व्यक्ति मेरे आदेशों के अनुसार अपना कर्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्यारहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पलान करते हैं, वे सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

भावानुवाद- अपने बताये हुए उपदेश में प्रवृत्त कराने के लिए श्रीभगवान ‘ये मे’ इत्यादि कह रहे हैं।।31।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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