श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते॥21॥
महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।
भावानुवाद- लोकसंग्रह के प्रकार को बता रहे हैं-‘यद् यद्’ इत्यादि।।21।।
न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एव च कर्माणि।22॥
हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है। तो भी मैं नियत्कर्म करने में तत्पर रहता हूँ।
भावानुवाद- यहाँ से तीन श्लोकों में भगवान् स्वयं को लोकशिक्षा के लिए उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।।22।।
यदि ह्यहं न वर्त्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्त्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥23॥
क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे।
भावानुवाद- यहाँ ‘अनुवर्त्तन्ते’ का तात्पर्य है-अनुकरण करेंगे।।23।।
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