श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
आत्म-अनुशीलन में ही आनन्द प्राप्त करने वाले पुरुष को कर्तव्य कर्म का अनुष्ठान करने से न तो पुण्य अथवा कर्तव्य कर्म के न करने से पाप-स्पर्श करता है। ब्रह्मा से लेेकर स्थावर-जंगमात्मक सभी जीव देहात्म बुद्धि के कारण लौकिक सुखों के भोग में निमग्न रहते हैं, उनके सारे कार्य सुख-भोग के लिए ही अनुष्ठित होत हैं, किन्तु आत्माराम या आप्तकाम पुरुष जड़-भोगरूप स्वार्थ से अतीत होते हैं। यहाँ तक कि वे उस ज्ञान और वैराग्य की भी अपेक्षा नहीं करते, जो कि त्यागियों के आश्रयस्थल हैं, क्योंकि उन्होंने भक्तिरूप आत्मधर्म का आश्रय लिया है, ज्ञान और वैराग्य भक्ति के अनुगामी होने के कारण स्वयं ही उनमें उपस्थित होते हैं-
‘भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्।।[1]
यदि यह प्रश्न होता है कि श्रुति में ऐसा कहा गया है-‘तस्मादेषां तत्र प्रियं यदेत्तन्मनुष्या विदुः।’[2]
अर्थात्, देवतागण ऐसा नहीं चाहते कि मनुष्य ब्रह्म को जान लें। और, श्रीमद्भागवत [3] में भी ऐसा ही देखा जाता है-‘विप्रस्य वै सन्न्यसतो देवा दारादिरूपिणः’ अर्थात् ब्राह्मणलोग संन्यास के द्वारा हमें उल्लंघन कर ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त कर लेंगे-यह सोचकर देवगण उन ब्राह्मणों के स्त्री-पुत्रादि के रूप में उपस्थित होकर विघ्न डालते हैं। इसलिए विघ्न दूर करने के लिए देवताओं की उपासना करना उचित है, तो इसका उत्तर यह है कि आगे के श्रुति-वचनों में ही ऐसा उल्लेख है कि देवगण भी विघ्न उपस्थित कर उनका अमंगल करने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि आत्मा ही उनकी रक्षा करता है। ये ‘आत्मा’ आत्मा के भी आत्मा परमात्मा ही हैं-‘वासुदेव परा वेदा वासुदेव परा मखाः’ [4] के अनुसार वासुदेव कृष्ण ही समस्त आत्माओं के मूल आत्मा हैं। उनका भजन करने से सभी प्रीति लाभ करते हैं। जिनमें कृष्णभक्ति है, उनके प्रति समस्त देवता भी अन्त में प्रीति और आदर करने के लिए बाध्य हैं। ‘भक्तिस्तु भगवद्भक्तसंगेन परिजायते’
इस शास्त्रवाक्य के अनुसार भक्तों के संग से ही भक्ति प्राप्त होती है। इस विचार के अनुसार भगवत्-भक्तों के लिए जिस प्रकार भगवान् आश्रय ग्रहण करने योग्य हैं, उसी प्रकार भक्तों का भी आश्रय ग्रहण करना आवश्यक है। इसीलिए श्वेताश्वेतर उपनिषद् में कहा गया है-
‘यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।’[5]
अर्थात जिनकी श्रीभगवान में पराभक्ति है और श्रीभगवान् के सदृश ही श्रीगुरुदेव के प्रति भी शुद्धा भक्ति है, उन्हीं महात्माओं के हृदय में सभी मर्मार्थ प्रकाशित होते हैं।।18।।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥19॥
अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है।
भावानुवाद- अतएव हे अर्जुन! ज्ञानभूमिका में आरूढ़ होने की तुम्हारी योग्यता नहीं है। चूँकि तुम सद्विवेकी हो, अतः काम्यकर्म में भी तुम्हारा अधिकार नहीं है। अतएव तुम निष्काम कर्म ही करो। इसके लिए ही कहते हैं-‘तस्मात्’ इत्यादि। कार्य अर्थात् अवश्य कर्तव्य के रूप में जो कर्म विहित है, उसे करने के बाद मोक्ष प्राप्त होता है।।19।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- निष्काम कर्म का अनुष्ठान करते-करते चित्त की शुद्धि होती है और चित्त की शुद्धि होने से ज्ञान लाभकर साधक पुरुष मोक्ष प्राप्त करते हैं। श्रीभक्ति विनोद ठाकुर का मोक्ष के सम्बन्ध में यह विचार है कि कर्म करते-करते कर्मयोग की परिपक्वावस्था में जो पराभक्ति होती है, उसी को यहाँ मोक्ष कहा गया है।।19।।
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